हमारे द्वारा किए गए अनुसंधान 1008
भारत के प्राचीन वैदिक विज्ञान के अनुशार यदि देखा जाए तो सरकारीविभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण न केवल महामारियाँ जन्म लेती हैं अपितु जहाँ जैसा भ्रष्टाचार वहाँ वैसी महामारी की मार पड़ते देखी जाती है | ऐसा ही मांसाहार का प्रभाव बताया गया है |
महामारी रहस्य !
भूमिका
महामारियाँ अचानक आकर बड़े वेग से ऐसे समाज पर टूट पड़ती हैं, लोग भारी संख्या में संक्रमित होने एवं मरने लगते हैं | जिससे बचाव के लिए किसी के पास कोई तैयारी नहीं होती है |इतने बड़े संकट के विषय में पहले से किसी को कुछ पता ही नहीं होता है |
ऐसी परिस्थिति में अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने एवं प्राण बचाने के अलावा भी समाज के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि आर्थिक उपार्जन कैसे हो काम धंधे सब ठप्प पड़ जाते हैं |अचानक ऐसी भयानक समस्या से बेबश समाज को जूझना पड़ता है | महामारी आने के विषय में उन्हें यदि पहले से कुछ पता होता तो वो अपने जीवन यापन के लिए आवश्यकता की कुछ तो तैयारी कर के रख सकते थे |
ऐसी परिस्थति में धन के बिना आवश्यक चिकित्सा कैसे की जाए ! बच्चों बूढ़ों आदि पारिवारिकजनों के पालन पोषण संबंधी व्यवस्था को कैसे जुटाया जाए | कुल मिलाकर जीवन चलाना अत्यंत कठिन हो जाता है | इसी महामारी काल जैसे संकट के समय में जहाँ पलपल में परिस्थितियाँ डरावनी होती जा रही होती हैं | ऐसे कठिन काल में महामारी से समाज को सुरक्षित बचाए रखने की जिम्मेदारी चिकित्सक समाज पर होती है |
महामारी के विषय में किसी को कुछ पता नहीं होता है और न ही इतनी जल्दी कुछ पता लगाना संभव ही हो पाता है|जानकारी के अभाव में पहले से बचाव के लिए कोई तैयारी होती नहीं है |कोई तैयारी हो भी कैसे क्योंकि उन्हें महामारी आने की सूचना ही तब मिल पाती है जब महामारी भारी संख्या में लोगों को संक्रमित करना या मारना शुरू कर देती है |जहाँ एक ओर महामारी दिन दूनी रात चौगुनी गति से नर संहार करने पर आमादा होती है वहीं उससे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सँभाल रहे लोगों को न रोग के लक्षण पता होते हैं और न ही चिकित्सा !उनके पास निर्मित औषधियाँ या औषधीय द्रव्यों का भी पर्याप्त मात्रा में संग्रह नहीं होता है |बिना जानकारी और बिना संसाधनों के उन्हें समाज की सुरक्षा के लिए अचानक अपने प्राणों पर खेलना पड़ता है |बहुसंख्य चिकित्सक जो दूसरों को महामारी से बचाव के उपाय बताते रहे लोगों को सुरक्षित बचाने के लिए प्रयत्न करते रहे! इसी बीच अचानक वे स्वयं कोरोनाकाल के गाल में समा गए | ऐसे में उनसे समाज की मदद करने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है जब उनका अपना जीवन स्वतः संशयग्रस्त होता है |
महामारी के अचानक हमले में सरकारें किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाती हैं सरकारों को समझ में ही नहीं आ रहा होता है कि उन्हें किस प्रकार से ऐसी अचानक प्राप्त परिस्थिति का सामना करना चाहिए | कर्तव्य परायण सरकारों को सभी जगह अपनी जिम्मेदारी निभानी होती है |उन्हें बचाव के उपायों पर तो ध्यान देना ही होता है, चिकित्सा की व्यवस्था भी सँभालनी होती है | सरकार को ही जहाँ एक ओर महामारी से बचाव एवं सुरक्षा के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों में आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाने होते हैं| समाज को चिकित्सा तो उपलब्ध करवानी होती ही है इसके साथ साथ जीवनयापन के लिए खान पान आदि की उपलब्धता बनाए रखने की भी जिम्मेदारी उनकी होती है | सरकारों की अपनी व्यस्तता तो महामारी के बिना भी रहती ही है | उसी के साथ साथ महामारी जैसी इतनी बड़ी समस्या का अतिरिक्त बोझ ढोना सरकारों के लिए आसान नहीं होता है| महामारी के आने के विषय में सरकारों को यदि पहले से कुछ पता होता तो व्यवस्था सँभालना कुछ और आसान होता !इस विषय में वैज्ञानिकों को ही पहले से कोई जानकारी नहीं होती है तो उनके द्वारा सरकारों को ऐसी कोई जानकारी कैसे दी जा सकती है |
महामारी जैसी इतनी बड़ी घटना के विषय में पहले से किसी को कुछ भी नहीं पता था | महामारी जब अचानक घटित होने लगी उस समय वैज्ञानिकों का एक वर्ग तो इसे मनुष्य कृत मानता रहा जिसके लिए किसी देश विशेष की लैब से महामारी पैदा हुई ऐसा बताया जाता रहा !जबकि महामारी वैज्ञानिकों का दूसरा वर्ग महामारी को प्राकृतिक रूप से पैदा हुई मानता रहा !
ऐसी परिस्थिति में महामारी को समझने के लिए प्राकृतिक परिवर्तनों का अध्ययन किया जाना आवश्यक माना जाता रहा ! इसमें प्रकृति के अन्य अंगों के साथ साथ मौसम संबंधी घटनाओं को अधिक जिम्मेदार माना गया है ! उसका कारण मौसमसंबंधी परिस्थितियों में बार बार परिवर्तन होते रहना है |
कोविड-19 महामारी क्या रहस्य ही बनी रहेगी !
महामारी और वैज्ञानिक तैयारियाँ !
प्रत्येक देश सामान्य दिनों में भी अपने देशवासियों की सुरक्षा के लिए सतर्क रहता है अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए हमेंशा हर संभव प्रयत्न किया करता है |वो अपने देश पर हमला होने का इंतजार नहीं करता है अपितु अपने देश की सीमाओं पर बारहों महीना तीसों दिन चौबीसों घंटा इतनी कड़ी प्रहरेदारी करता है जैसे किसी शत्रु राष्ट्र के द्वारा अभी ही हमला किया जाने वाला है | वो शत्रु की मारक क्षमता के अनुशार अपनी तैयारियाँ नहीं करता है अपितु वो अपनी तैयारियाँ हमेंशा ही सर्वोत्तम करके चलता है ताकि उसे बाद में पछताना न पड़े | ऐसे ही वो संभावित युद्ध का स्वरूप परिवर्तन होने की प्रतीक्षा नहीं करता है अपितु शुरू से ही ऐसा मानकर चलता है कि शत्रु साम दाम दंड भेद जैसे वे सारे वेरियंट बदल बदल कर युद्ध करेगा जो जो हमें पराजित करने के लिए आवश्यक समझेगा !इसप्रकार की सघन तैयारियॉँ रखते हुए वह हमेंशा अपने देश की सुरक्षा के लिए प्रयत्न करता है |
हमें चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि सामान्य या मध्यमस्तरीय युद्धों में इतने लोग नहीं मारे जाते हैं जितने कि महामारी में मारे गए इसके बाद भी युद्धों को जीतने के लिए एक से एक बड़े हथियारों का जखीरा सा तैयार करने की होड़ से लगी रहती है ताकि युद्ध में कोई किसी दूसरे देश से पीछे न रह जाए |इसके लिए वे युद्ध की संभावना बनने का इंतजार नहीं करते हैं,क्योंकि युद्ध अक्सर अचानक ही होता है | उस समय तैयारियाँ करने के लिए समय कहाँ मिलता है |
ऐसे ही जीवन की प्रत्येक विपरीत परिस्थिति से निपटने की तैयारियाँ पहले से करके रखने वाले लोग प्रायः पराजित नहीं होते हैं और यदि हो भी जाते हैं तो उन्हें इस बात का पछतावा नहीं रहता है कि यदि उस प्रकार की तैयारियॉँ करके रखी गई होतीं तो शायद ऐसा नहीं होता |
भूकंप बाढ़ बज्रपात तूफ़ान एवं भीषण अग्निकांड जैसे सभीप्रकार के संकटों से निपटने के लिए भी आपदा प्रबंधनसंबंधी आवश्यक तैयारियाँ करके हमेंशा रखी जाती हैं, जिससे आवश्यकता पड़ने पर बचाव कार्य तुरंत प्रारंभ कर दिए जाते हैं ! उससमय सोचने समझने के लिए समय ही नहीं मिलता है| इसीलिए तो संभावित हर परिस्थिति से निपटने के लिए आगे से आगे तैयारियाँ करके रखी जाती हैं |
देश की सुरक्षा के लिए जिस प्रकार से आगे से आगे सैन्य तैयारियाँ करके रखी जाती है तथा संभावित सभीप्रकार के संकटों से निपटने के लिए आपदा प्रबंधन की दृष्टि से राहत और बचाव कार्यों के लिए मजबूत तैयारियाँ करके रखी जाती हैं |ऐसे ही बाढ़, आँधीतूफ़ान, बज्रपात, वायुप्रदूषण एवं भूकंप जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं के समय भी राहत और बचाव कार्यों के लिए मजबूत तैयारियाँ करके रखी जाती हैं | उन्हीं तैयारियों के बल पर उससे संबंधित लोग तुरंत मोर्चा सँभाल लिया करते हैं |
कोरोना महामारी के समय में भी बचाव और राहत कार्यों की दृष्टि से थोड़ी बहुत कमियों को छोड़कर ठीक ठाक व्यवस्था थी | इतनी बड़ी मुसीबत में जन जन की जरूरतों को ध्यान रखना उन्हें पूरी करने के लिए अधिकतम प्रयत्न करना खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाना ,आवश्यक औषधियों की व्यवस्था करना जैसे बड़े काम सभी सरकारों ने बड़ी तत्परता और आत्मीयता से किए हैं | यहाँ तक कि वैज्ञानिकों के द्वारा बताए गए कोविड नियमों का पालन हो या वैक्सीन उपलब्ध करवाने जैसे कार्यों के लिए भारत वर्ष की सराहना विश्व में भी होती रही है |
कुल मिलाकर महामारी जैसे कठिनकाल में आपदा प्रबंधन की दृष्टि से तो व्यवस्था ठीक थी किंतु वैज्ञानिकपक्ष पर निरंतर प्रश्न खड़े होते रहे | उसविषय में आत्ममंथन की आवश्यकता है |
जिसप्रकार से किसी भी देश पर कोई भी शत्रु देश अचानक हमला कर सकता है उससे निपटने की तैयारियाँ आगे से आगे करके रखी जाती हैं | ऐसी तैयारियाँ करने के लिए शत्रुके हमले इंतजार नहीं किया जाता है कि पहले शत्रु हमला करे इसके बाद उस हमले के अनुशार तैयारियाँ करनी शुरू की जाएँगी | भूकंप महामारी आदि सभी प्राकृतिक आपदाओं के समय आपदा प्रबंधन संबंधी तैयारियाँ पहले से ही करके रखी जाती हैं | उसीप्रकार की तैयारियाँ महामारियों के समय वैज्ञानिक अनुसंधान कर्ताओं के द्वारा करके क्यों नहीं रखी जाती हैं |
महामारी के समय हमेंशा चलाए जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधानों की ऐसी क्या भूमिका रही या उनके द्वारा समाज की ऐसी क्या मदद की जा सकी जो उनके बिना संभव न थी | यदि वे अनुसंधान न चलाए जा रहे होते तो इतना इतना नुक्सान और अधिक हो सकता था ! ऐसा कहा जा सकता है क्या ? यदि नहीं तो क्यों ?इतनी भारी भरकम धनराशि खर्च करके हमेंशा चलाए जाने वाले अनुसंधानों को यूँ ही निरर्थक तो नहीं चलाया जा सकता है | इतने बड़े संकट काल में इन्हें भी कुछ काम तो आना चाहिए |
वैज्ञानिक तैयारियों की आवश्यकता !
महामारी हो या भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएँ ये जब घटित होने लगती हैं तब तो नुक्सान होना प्रारंभ हो ही जाता है | जन धन की हानि तो उसी समय से होने लगती है | भूकंप जैसी घटनाओं में तो जो नुक्सान होना होता है वो पहले झटके में ही हो जाता है | महामारी आदि की तो शुरुआत ही लोगों के संक्रमित होने या मृत्यु को प्राप्त होने से होती है |
ऐसी घटनाओं से बचाव के लिए जब तक कुछ सोचा जाता है तब तक तो जो नुक्सान होना होता है वो प्रायः पहले झटके में ही हो जाता है बाद में हम विज्ञान विज्ञान करते रहते हैं जिसका कोई मतलब भी नहीं बनता है | इसलिए इनसे बचाव के लिए उपाय पहले से ही करके रखने होते हैं , तुरत फुरत में तो समस्या के वास्तविक स्वरूप को समझना ही कठिन होता है इसीलिए न तो उपाय ठीक से हो पाते हैं और न ही चिकित्सा हो पाती है और न ही उस अनुपात में उनका प्रभाव ही पड़ पाता है |
इतना अवश्य है कि उस समय मिले अनुभव भविष्यसंबंधी ऐसी घटनाओं के अवसर पर काम आ सकते हैं किंतु वर्तमान में उनकी कोई बड़ी भूमिका नहीं होती है | घटनाएँ घटित हो जाने के बाद आपदा प्रबंधन की भूमिका ही बचती है |
महामारी भूकंप आदि सभीप्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से समाज सुपरिचित है | प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी घटनाओं की भयावहता का अंदाजा होता है कि ऐसी घटनाओं से भारी जन धन की हानि होती है | इसके साथ ही साथ अंदाजा इस बात का भी रहता है कि ऐसी घटनाएँ कभी भी घटित हो सकती हैं और जब भी घटित होंगी तब अचानक ही घटित होंगी | जिसके दुष्प्रभाव मनुष्यसमाज को सहने ही पड़ेंगे |
ऐसी परिस्थिति में इनसे बचाव के लिए दो ही उचित मार्ग हो सकते हैं एक तो बचाव के लिए ऐसी व्यवस्था हमेंशा करके रखी जाए जिससे आपदाओं के समय में बचाव कार्यों को सुनिश्चित किया जा सके और दूसरी बात ऐसी आपदाएँ जब घटित हों तब उनके विषय में बचाव के लिए आवश्यक उपाय पहले से करके रखे जाएँ | ऐसा किया जाना तभी संभव है जब ऐसी घटनाओं के घटित होने के विषय में पहले से जानकारी हो | पहले से जानकारी करके रखने के लिए ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान पता होना चाहिए कि ऐसी घटनाएँ कब घटित होने वाली हैं |
पूर्वानुमान लगाने के दो ही प्रकार हो सकते हैं एक तो प्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर और दूसरा अप्रत्यक्ष वैज्ञानिक विधा के आधार पर |प्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर लगाया गया अनुमान या अंदाजा होता है जो सही और गलत दोनों हो सकता है | इस श्रेणी में वर्षा संबंधी पूर्वानुमान या आँधी तूफ़ान आदि के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए पूर्वानुमान जो प्रत्यक्ष साक्ष्यों पर आधारित होते हैं | ये कभी सही और कभी गलत निकलते देखे जाते हैं |
इसके अतिरिक्त दूसरे विशुद्ध वैज्ञानिक पूर्वानुमान होते हैं जिसमें प्रत्यक्ष घटनाओं का सहारा लिए बिना केवल विज्ञान के आधार पर ही पूर्वानुमान लगाए जाते हैं | यह कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य बनाए बिना केवल गणितविज्ञान के आधार पर प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने की अपनी प्राचीन परंपरा रही है इसके आधार पर प्राकृतिक घटनाओं के विषय में जो पूर्वानुमान लगाए जाते हैं वे सूर्य चंद्र ग्रहण गणना की तरह ही सही निकलते हैं बशर्ते उसे ठीक ढंग से अनुसंधान पूर्वक किया जाए |ग्रहणों के विषय में जो पूर्वानुमान सैकड़ों वर्ष पहले पता लगा लिए जाते हैं वे एक एक मिनट सही समय पर घटित होते देखे जाते हैं |प्राचीन काल में इसी गणितविज्ञान के द्वारा अनुसंधान पूर्वक महामारी समेत सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगा लिए जाते रहे हैं |जो प्रायः सही निकलते रहे हैं |
वर्तमान समय में उसीप्राचीन विज्ञान पर आधारित अनुसंधानों की परंपरा विलुप्त सी होती जा रही है उस गणित विज्ञान के आधार पर आधारित अनुसंधान अब कहीं होते नहीं दिखाई पड़ रहे हैं ,जहाँ कहीं हो भी रहे होंगे वे खाना पूर्ति मात्र ही रह गए हैं |यहाँ तक कि महामारी या मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने वाले लोगों की श्रेणी में प्राचीन गणित वैज्ञानिकों की उपस्थिति नहीं दिखाई पड़ रही है |
ऐसी परिस्थिति में आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा जो महामारी या मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में जो अंदाजे लगाए जाते हैं उन्हें ही विज्ञान सम्मत पूर्वानुमान मान लिया जाता है |यद्यपि वे अक्सर गलत निकलते हैं | इसीलिए उनके आधार पर महामारी या मौसमसंबंधी घटनाओं के विषय में जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते हैं उन्हें आधार मानकर संभावित उन घटनाओं से बचाव के लिए अग्रिम व्यवस्था करके नहीं रखी जा सकती है और न ही आवश्यक औषधियों या औषधीय द्रव्यों या राहत सामग्री आदि का संग्रह करके रखा जा सकता है क्योंकि यदि वे अंदाजे सही नहीं निकले और वैसी घटनाएँ नहीं घटीं जिनके लिए उस प्रकार के संग्रह करके रखे गए थे तो उन तैयारियों का क्या होगा | महामारियों की संभावना होने पर तो भारी मात्रा में औषधियाँ आदि निर्मित करके रखनी होती हैं |औषधीय द्रव्यों का बड़ी मात्रा में संग्रह करके रखना होता है |वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए जाने वाले उन पूर्वानुमानों पर यदि भरोसा करके उसी के आधार पर अग्रिम तैयारियाँ करके न रखी जाएँ तो उन अनुमानों पूर्वानुमानों का और दूसरा उपयोग ही क्या है ?
ऐसा विज्ञान नहीं है !
समय परिवर्तनशील होता ही है और समय के साथ साथ प्रकृति और जीवन के प्रत्येक अंश में प्रतिपल परिवर्तन हो ही रहे होते हैं | इसप्रकार के परिवर्तन प्रकृति और जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं से जुड़े होते हैं उनमें से कुछ घटनाएँ पहले घटित हो चुकी होती हैं और कुछ भविष्य में घटित होनी होती हैं | ऐसी घटनाओं को वर्तमान में घटित होती देखकर उनका अतीत में घटित हुई घटनाओं से मिलान कर उसी के आधार पर उनके भविष्य संबंधी स्वरूप के विषय में अंदाजा लगा लिया जाता है |
ऐसा किया जाना तभी संभव है जब वर्तमान में घटित हो रही घटनाओं के स्वभाव को अच्छीप्रकार से समझा जा सका हो | उसी स्वभाव के आधार पर उन घटनाओं का मिलान अतीत में घटित हुई घटनाओं के साथ कर लिया गया हो | इस प्रकार से अतीत और वर्तमान में मिलान हो चुकने के बाद उनके भविष्य संबंधी संभावित स्वरूप के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | इस प्रक्रिया से प्रकृति के स्वभाव को समझकर प्रकृति से प्राप्त संकेतों को देखकर प्रकृति के संभावित भावी रुख को भाँपा जा सकता है |
जिसप्रकार से समय परिवर्तनशील है समय के साथ साथ जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं उसीप्रकार से प्राकृतिक वातावरण के अन्तःपटल में भी ऐसे छोटे बड़े परिवर्तन हमेंशा होते रहते हैं | ऐसे सूक्ष्म परिवर्तन कई बार प्रत्यक्ष रूप से या उपग्रहों रडारों के माध्यम से वर्तमान समय में तो नहीं दिखाई पड़ रहे होते हैं किंतु किसी न किसी घटना के स्वरूप में अपनी उपस्थिति दर्ज अवश्य कराया करते हैं |इसप्रकार से प्राकृतिक वातावरण में उभरने वाले उन सूक्ष्म संकेतों पर भी ध्यान रखा जाना चाहिए ,क्योंकि जो घटनाएँ आज प्रकृति के गर्भ में हैं उनका कभी न कभी तो प्रसव भी होगा |यदि वे प्राकृतिक भ्रूण अच्छे हुए तब तो ठीक किंतु यदि बुरे हुए तो उसके परिणाम भी बुरे ही होंगे स्वाभाविक है ! यदि वे अधिक बुरे हुए तो उनके प्रभाव से महामारी भूकंप बज्रपात चक्रवात जैसी बड़ी हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं | जिनसे भारी जनधन हानि होते देखी जाती है |
किसी भी कल्याणकामी समाज के लिए यह आवश्यक है कि ऐसी प्राकृतिक घटनाओं को प्रत्यक्ष देखने का इंतजार नहीं करना चाहिए |उनसे बचाव के लिए हमेंशा सतर्कता बरती जानी चाहिए | प्राकृतिक घटनाओं के भ्रूणों की पहचान निरंतर करते रहनी चाहिए ,ताकि उन भ्रूणों को प्राकृतिक आपदाओं के रूप में प्रसव होने से पहले न केवल पहचाना जा सके अपितु उनसे बचाव के लिए आवश्यक उपाय भी किए जा सकें ! उनका सामना करने के लिए आवश्यक संसाधन जुटाए जा सकें एवं उन्हें सहने के लिए पर्याप्त साहस जुटाया जा सके |
वैज्ञानिक अनुसंधानों की वर्तमान पद्धति से
प्रकृति के गर्भ में पल रहे प्राकृतिक घटनाओं के भ्रूणों का परीक्षण
करने की कोई प्रक्रिया न होने के कारण उनके विषय में तभी पता लग पाता है जब
उनका प्रसव होता है अर्थात वे हिंसक घटनाएँ घटित होने लगती हैं और उनसे
जनधन की हानि होनी प्रारंभ हो जाती है | वे घटनाएँ अत्यंत वेग से एक बार जब
घटित होनी प्रारंभ हो ही चुकी होती हैं तो जनधन की हानि होनी भी शुरू हो
जाती है | जिसे किसी भी प्रकार से तुरंत रोका जाना संभव नहीं होता है |
इस दृष्टि से देखा जाए तो प्राकृतिक विषयों से संबंधित अनुसंधानों के
क्षेत्र में अभी तक जितना जो कुछ किया जा सका है उसे परिणामों की दृष्टि से संतोषजनक नहीं माना
जा सकता है | विश्ववैज्ञानिकों
के लिए यह चिंता पैदा करने वाली बात है कि प्रकृति को पढ़ने के लिए
हमारे पास कोई ऐसी वैज्ञानिक तकनीक ही नहीं है जिसके आधार पर महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा, वायुप्रदूषण,भूकंप जैसी
प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार आधारभूत वास्तविक कारण
खोजे जा सकें और उन घटनाओं के विषय में समय रहते पूर्वानुमान लगाए जा सकें
|
ऐसी परिस्थिति में महामारियाँ कभी तक चलती रहें कितनी भी लहरें आवें उनके विषय में पता लगाना संभव ही नहीं है जो घटनाएँ उपग्रहों रडारों से दिखाई पड़ेंगी वे देख देख कर बता दी जाएँगी भूकंप महामारी जैसी घटनाएँ उपग्रहों रडारों से नहीं दिखाई पड़ती हैं उनके विषय में मना कर दिया जाएगा कि इनके विषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है !
कई बार लगता है कि विज्ञान दिनोंदिन तरक्की करते हुए नित नूतन शिखरों को चूमते चला जा रहा है ,वहीं दूसरी ओर मौसम महामारी आदि प्राकृतिक विषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों की कोई भूमिका ही नहीं बन पा रही है | महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा, वायुप्रदूषण तथा भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाएँ मानव जीवन को सीधे न केवल प्रभावित करती हैं अपितु पीड़ित भी करती हैं |जीवन मृत्यु जैसी परिस्थिति पैदा कर देती हैं | महामारी भूकंप बाढ़ बज्रपात एवं तेज तूफ़ान जैसी हिंसक घटनाएँ अचानक घटित होती हैं जिनसे बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होते और मृत्यु को प्राप्त होते हैं |
ऐसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए अभी तक कोई वैज्ञानिक विधि नहीं खोजी जा सकी है |इनके पैदा होने का निश्चित कारण नहीं खोजा जा सका है |इसीलिए किसी किसी वर्ष महामारी भूकंप बाढ़ बज्रपात एवं तेज तूफ़ान जैसी हिंसक घटनाएँ बड़ा भयंकर रूप ले लेती हैं अर्थात बार बार घटित होने लगती हैं बहुत अधिक मात्रा में घटित होती हैं जिनसे भारी जन धन की हानि होती देखी जाती है किंतु ऐसी घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार वास्तविक कारण पता न होने से यह पता लगाया जाना कठिन होता है कि इस वर्ष ही ऐसी घटनाएँ इतनी अधिक मात्रा में क्यों घटित हो रही हैं |ये कब तक यूँ ही घटित होती रहेंगी क्या ये हमेंशा घटित होंगी या प्रति वर्ष घटित होंगी आदि प्रश्नों का उत्तर किसी को पता नहीं होता है |
भारत में 2016 के अप्रैल मई में आग लगने की घटनाएँ बहुत अधिक मात्रा में घटित होने लगीं,2018 अप्रैल मई में आँधी तूफ़ान एवं बज्रपात आदि की घटनाएँ बहुत अधिक मात्रा में घटित होने लगीं 2019 -20 में भूकंप बहुत अधिक मात्रा में घटित हुए और सारे विश्व को पीड़ित करने वाली महामारी पैदा हो गई किंतु इनमें से किसी भी घटना के पैदा होने का न तो कारण पता किया जा सका और न ही अनुमान पूर्वानुमान आदि | आखिर इन्हीं वर्षों में ऐसा क्यों हुआ ? वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा इसे पता लगाना संभव न था |
ऐसी परिस्थिति में मानव जीवन को सुख सुविधा पहुँचाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा कितने भी प्रयत्न क्यों न कर लिए जाएँ किंतु उनका उपयोग मनुष्य तभी कर पाएगा जब वह जीवित रहेगा | यदि महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा, वायुप्रदूषण तथा भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं से जीवन को सुरक्षित बचाने के लिए कोई मजबूत वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं किए जाते तो सुख सुविधा पहुँचाने वाली बहुत सारी व्यवस्थाएँ जुटा भी ली जाएँ तो उनसे क्या होगा ?
आँधी तूफ़ान बादल वर्षा जैसी घटनाएँ उपग्रहों रडारों के माध्यम से दिखाई पड़ जाती हैं इसलिए उनके विषय में कुछ अंदाजा लगा लिया जाता है किंतु महामारी,मानसून, तापमान, बज्रपात एवं भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाएँ उपग्रहों रडारों के माध्यम से नहीं देखी जा सकती हैं इसलिए उनके विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाने से पहले ही दूरी बना ली जाती है | विशेष बात एक और है कि आँधी तूफ़ान बादल वर्षा जैसी जो घटनाएँ उपग्रहों रडारों के माध्यम से देख भी ली जाती हैं वे दो चार दिन पहले तक की ही देखी जा सकती हैं | उसके बाद भी यदि ऐसी घटनाएँ घटित होनी होंगी तो जब वे दिखाई देंगी तब उनके विषय में बाद में बोल दिया जाएगा कि ऐसी घटनाएँ अभी 48 घंटे या 72 घंटे और घटित होंगी | कई बार यदि वैसी घटनाएँ घटित होनी बंद नहीं होती हैं तो इसके बाद तीसरी बार भी 24 या 48 घंटे वैसी घटनाएँ और घटित होते रहने की घोषणा कर दी जाती है |
कुल मिलाकर जब जैसी जैसी घटनाएँ घटित होते दिखती जाती हैं अनुमान पूर्वानुमान के नाम पर वही बताई जाती हैं और उन्हीं के आधार पर कुछ आशंकाएँ व्यक्त कर दी जाती हैं | ऐसी परिस्थिति में यदि वही बताते जाना है तो फिर वैज्ञानिक अनुसंधानों को करने करवाने का औचित्य ही क्या बचता है और इसमें अनुमान पूर्वानुमान जैसा होता ही क्या है ?
किसी भी प्राकृतिक घटना के विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाते समय सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में लगाए जाने वाले अनुमानों पूर्वानुमानों के उदाहरण को सामने रखकर चलना चाहिए !जिसमें किसी उपग्रह रडार आदि का उपयोग बिना किए ही हजारों वर्ष पहले के ऐसे पूर्वानुमान लगा लिए जाते हैं जिनमें कभी संशोधन नहीं करने पड़ते हैं |एक एक मिनट सेकेंड सही घटित होते हैं | यह पद्धति तब से चली आ रही है जब आधुनिक विज्ञान का जन्म भी नहीं हुआ था |
वर्तमान समय में प्राकृतिक घटनाओं के विषय में भी इसी गणितीय वैज्ञानिक
विधि से
लगाए गए पूर्वानुमान आदि उपयोगी हो सकते हैं जिनसे ऐसी घटनाओं के विषय में
आगे से आगे अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जा सकें | भारत के परंपरागत
प्राचीन वैज्ञानिक ग्रंथों में महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा,
वायुप्रदूषण तथा भूकंप जैसी
प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने की विधियों का
वर्णन उसी प्रकार का मिलता है जिस प्रकार से सूर्य चंद्र ग्रहण के विषय
में अनुमान पूर्वानुमान लगाने की विधि बताई गई है | ऐसी गणितीय अनुसंधान
पद्धति को प्रयोग में लाने के लिए गंभीर अनुसंधानों की
आवश्यकता है | उसके आधार पर लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि आज भी सही होते
देखे हैं |
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भारत का प्राचीनविज्ञान अंधविश्वास है क्या ?
आधुनिक विज्ञान को आए अभी कुछ सौ वर्ष ही तो हुए हैं उसके पहले जो विज्ञान था जिसके आधार पर हम सभी के जीवन यापन की आवश्यकताओं की आपूर्ति सुनिश्चित की जा रही थी आज वो अंधविश्वास कैसे हो गया ! अंधविश्वास उस विज्ञान को बताया जा रहा है जो लाखों वर्षों से भारत वर्ष को गौरवान्वित करता रहा है जिसने प्राकृतिक घटनाओं को ठीक ठीक प्रकार से समझने के लिए गणित जैसी वैज्ञानिक विधा को खोजा है !जिसके द्वारा सूर्य चंद्र ग्रहण जैसी प्राकृतिक घटनाओं गणित के द्वारा प्रत्यक्ष कर लिया है हजारों वर्ष पहले से लेकर हजारों वर्ष बाद तक की प्राकृतिक घटनाओं को समझने के लिए उनके घटित होने का कारण खोजने के लिए उन घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए गणितीय विधा विकसित कर ली है | जिसके आधार पर वर्तमान समय में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में बहुत कुछ समझा जा सकता है | इसके साथ ही साथ आज के हजारों वर्ष पहले की घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता है| विशेष बात यह है कि अनुसंधान की इस प्रक्रिया में किसी उपग्रह रडार आदि किसी भी प्रत्यक्ष यंत्र की विशेष आधीनता नहीं होती है | केवल गणित के द्वारा ऐसा करके दिखा दिया जाता है |
उदाहरण रूप में देखा जाए तो आधुनिक विज्ञान के माध्यम से किए जाने वाले मौसम संबंधी अनुसंधानों में उपग्रहों रडारों के साथ साथ विमानों की भी मदद ली जाती है |मौसम की हलचल पर नजर रखने के लिए विज्ञानी कंप्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता लेते हैं। इनसे जो आंकड़े इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाते हैं। हमारे देश में मौसम विभाग के पास 550 भू-वेधशालाएं, 63 गुब्बारा केंद्र, 32 रेडियो, पवन वेधशालाएं, 11 तूफान संवेदी, 34 तूफान सचेतक रडार, आठ उपग्रह चित्र प्रेषण एवं ग्राही केंद्र हैं। लक्षद्वीप, केरल एवं बेंगलुरु में 14 मौसम केंद्रों के डाटा पर सतत निगरानी रखते हुए मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ की जाती हैं। अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से भी सीधे मौसम की जानकारियां कंप्यूटरों में दर्ज होती रहती हैं।
यह अत्यधिक थकाऊ एवं अति खर्चीली प्रक्रिया होती है जिसके परिणाम स्वरूप जो कुछ प्राप्त होता है उसके आधार पर इस विश्वास के साथ कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है कि यह सच होगी ही | दूसरी बात महामारी के समय जब महामारी संबंधी अनुमानों पूर्वानुमानों का पता लगाने की सबसे अधिक आवश्यकता महामारी संबंधी अनुसंधानों के लिए होती है उस समय वायुयानों, समुद्री जहाजों आदि का परिचालन बंद कर दिया जाता है ऐसे समय मौसम संबंधी अनुसंधानों में इससे मिलने वाली मदद भी बाधित होती है जबकि गणित संबंधी अनुमानों पूर्वानुमानों में इस प्रकार की किसी बाधा का कोई भय नहीं होता है |
किसी माला में 108 गुरियाँ होती हैं उस माला में जिस गुरिया में जो चिन्ह होता है वो माला फेरते समय अपने अपने क्रम से आता जाता रहता है बाक़ी माला को रोककर केवल एक गुरिया को ही ऊपर नीचे नहीं ले जाया जा सकता है वे सभी अपने अपने क्रम से ही ऊपर नीचे आएँगी जाएँगी | उन गुरियों में से जिस किसी चिन्ह वाली जो गुरिया जिस गुरिया के आगे या पीछे होती है वो उसी क्रम में ऊपर या नीचे ले जय जा सकेगी | उसका वो क्रम नहीं टूट सकता है |
इसी प्रकार से प्रकृति में घटित होने वाली प्रत्येक घटना समय रूपी धागे में पिरोई हुई है | उस घटना के पहले या पीछे किस किस प्रकार की किन किन घटनाओं को घटित होना है | उस उद्दिष्ट घटना से किस घटना को कितने पहले या पीछे घटित होना है यह सुनिश्चित होता है इसलिए समय बीतने के साथ वे अपने अपने क्रम से घटित होती रहती हैं |उन आगे पीछे घटित होने वाली घटनाओं के आधार पर भी अद्दिष्ट घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है | जिस प्रकार से सर्दी गर्मी वर्षा आदि प्रमुख ऋतुएँ प्रत्येक वर्ष अपने अपने क्रम से ही आते जाते देखी जाती हैं | प्रातः सायं दिन रात्रि शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष तथा सर्दी गर्मी वर्षा आदि की आवृत्ति का क्रम और समय हमें पता है इसी लिए हम आगे से आगे यह जान लेते हैं कि किस घटना के बाद में कौन सी घटना घटित होगी |
महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा वायु प्रदूषण,भूकंप जैसी घटनाओं का आपसी समयांतराल हमेंशा घटता बढ़ता रहता है |वह भी निश्चित होता है जिसे समझने के लिए गणितागत दृष्टि की आवश्यकता होती है | सर्दी गर्मी वर्षा की तरह उन घटनाओं की आवृत्तियाँ अपने अपने निर्धारित समय पर घटित होती हैं किंतु उनका आपसी समयांतराल भिन्न भिन्न होता है | उसके विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाना इतना आसान नहीं होता है इसलिए उसे गणितविज्ञान के द्वारा ही समझा जा सकता है उसे के द्वारा अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता है जैसा कि ग्रहणों के समय में होता है | जिस प्रकार से सूर्य चंद्र ग्रहण जैसी प्राकृतिक घटनाओं के आपसी समयांतराल भिन्न भिन्न होने पर भी उनके विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है , जो एक एक सेकेंड का सही निकलता है| ऐसा गणित विज्ञान के द्वारा ही संभव हो पाया है | उसी गणित विज्ञान के द्वारा अनुसंधान पूर्वक महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा वायु प्रदूषण,भूकंप आदि घटनाओं के विषय में भी अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जा सकते हैं | इनका भी आपसी समयांतराल हर बार भिन्न भिन्न निकलता है किंतु गणित के द्वारा ग्रहणों की तरह ही ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में भी शोध पूर्वक अनुमान आदि लगाया जा सकता है |
इसी प्रकार से यदि महामारी और उसकी लहरों के आने जाने के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आगे से आगे लगाया जा सकता है | तो वो अंधविश्वास कैसे हो सकता है |
समयविज्ञान और महामारी
ऐसे ही सभीप्रकार की प्राकृतिक आपदाओं महामारियों से समाज को सुरक्षित बचाए रखने के लिए वेदों में वर्णित मंत्रों के द्वारा यज्ञों के बड़े बड़े विधान मिलते हैं जिनके द्वारा प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों के समय भी समाज का सुरक्षित बचाया जा सकता है|यहाँ तक कि महामारी से पीड़ित हो चुके लोगों को भी स्वस्थ किया जा सकता है|उसी वैदिक विज्ञान का अध्ययन अध्यापन संस्कृत विश्व विद्यालयों में करवाया जाता है | जिसे पढ़ाने के लिए एक से एक सुयोग्य रीडर प्रोफेसर आदि रखे जाते हैं |उन विद्वान शिक्षकों में इस प्रकार की विशेषज्ञता होनी स्वाभाविक ही है कि ऐसे यज्ञ विधानों को प्रयोगात्मक रूप से करने में सक्षम हों|कोरोना महामारी से समाज को सुरक्षित बचाए रखने के लिए उन विद्वानों के द्वारा जनहित में ऐसा कोई प्रयत्न क्यों नहीं किया जा सका जिससे सुरक्षित समाज महामारी से पीड़ित ही न होता और जो पीड़ित हो भी जाते उन्हें भी संक्रमण से मुक्ति दिला दी जाती |
स्वरविज्ञान योग का ही एक अंग है जिसके द्वारा सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है ऐसे ऐसे प्राणायामी प्रयोग षण्मुखीकरण आदि विधियाँ बताई गई हैं |उस स्वर विज्ञान को वेदांग के रूप में पढ़ाया तो जाता है किंतु कोरोना काल में उससे संबंधित विद्वानों साधकों के द्वारा ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया जा सका जिससे समाज को ऐसी कोई मदद मिल पाती और समाज संक्रमित होने से बच जाता या संक्रमित हुए लोगों को सुरक्षित बचा लिया जाता |
इसी प्रकार से सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथों पूजा पद्धतियों में महामारी जैसी सभी प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए तरह तरह के उपासनात्मक प्रयोग बताए गए हैं जिन्हें उन उन धर्मों से संबंधित धर्माचार्य बड़े विश्वास के साथ न केवल उपदेश किया करते हैं अपितु ऐसे प्राकृतिक संकटों से बचाव के लिए समाज को उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित भी किया करते हैं | दूसरों को प्रेरित करते रहने वाले उन साधकों उपदेशकों विद्वानों की शक्ति सामर्थ्य के विषय में विश्वास किया जाता है कि उन ज्ञानी गुणियों साधकों उपदेशकों आदि में यह क्षमता अवश्य होगी कि वे ऐसे संकटों से समाज को सुरक्षित बचा सकें और संक्रमित हुए लोगों को संक्रमण मुक्ति दिला सकें किंतु कोरोना काल में उनकी इस सामर्थ्य से समाज को लाभान्वित नहीं किया जा सका |
आयुर्वेद के चरकसंहिता जैसे शिखर ग्रंथों में महामारी आने से पहले किसी भी महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाने की विधि बताई गई है |उन्हीं ग्रंथों में महामारी आने से पहले ही उसकी औषधि निर्माण करने की विधि बताई गई है जिसके द्वारा भावी महामारी पर अंकुश लगाया जा सकता है |वही आयुर्वेद भारतवर्ष में एक विषय के रूप में विश्व विद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है | उन विश्व विद्यालयों में पढ़ाने के लिए अत्यंत सुयोग्य रीडर प्रोफेसर आदि नियुक्त किए जाते हैं जिनके विषय में ऐसा विश्वास करके चला जाता है कि वे तो आयुर्वेद के विद्वान् होंगे ही !इसलिए इन्हें चरकसंहिता में वर्णित वह विधि भी पता होगी कि महामारी के विषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जाता है और किसी आगामी महामारी के लिए पहले से किसी औषधि का निर्माण कैसे किया जा सकता है | यदि उन्हें ये सब कुछ पता था तो कोरोना महामारी के विषय में उनके द्वारा कोई ऐसा सटीक पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका या किसी ऐसी औषधि का निर्माण क्यों नहीं किया जा सका जिससे महामारी पीड़ित होने से पहले ही समाज की सुरक्षा सुनिश्चित कर ली जाती |
वेद वेदांगों के सभी विद्वानों साधकों पर समाज का विश्वास इतना मजबूत है कि उन पर समाज की अत्यधिक आस्था है इसीलिए उनके उपदेशों को श्रद्धा पूर्वक सुनती है उस पर विश्वास करती है उसी पथ पर अनुगमन करने का प्रयत्न करती है |इसके बाद भी महामारी संबंधी संकट के समय समाज को बहुत बड़े सहारे की आवश्यकता थी उस समय उन्हें अपेक्षित मदद नहीं मिल सकी | यह भविष्य के लिए चिंता का विषय है |
इसीप्रकार से आधुनिक विज्ञान जिसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अत्यंत सराहनीय योगदान दिया है | समाज की कठिनायों को कम करके जीवन को सरल बनाया है|अनेकों प्रकार के संकटों का समाधान खोजने का प्रयत्न किया है | वैज्ञानिक लोग काफी बड़ी सीमा तक समस्याओं के समाधान निकालने में सफल भी हुए हैं | उन पर समाज का विश्वास ही इस बात का साक्ष्य है कि वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सेवाओं से समाज को संतुष्ट कर सके हैं |
इतना सब होने के बाद भी महामारी वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के प्रत्येक पक्ष के विषय में जब जब जो जो अनुमान या पूर्वानुमान आदि लगाए जाते रहे वे बार बार गलत निकल जाते रहे| महामारी की सभी लहरों में ऐसा होते देखा गया है| इसका कारण महामारी को समझने के लिए कोई विज्ञान ही नहीं था या फिर महामारी ही इतनी भयंकर थी कि उसे विज्ञान के द्वारा समझा जाना संभव ही न था |
सभी प्राकृतिक आपदाओं की तरह ही महामारी भी एक प्रकार की प्राकृतिक आपदा ही है | महामारी पहली बार तो आई नहीं हैं ये हमेंशा ही आती रही हैं इसके विषय में भी अनुसंधान भी निरतंर होते रहते हैं | आधुनिक विज्ञान जब से आस्तित्व में आया तब से उसके द्वारा भी अनुसंधान किए जा रहे हैं किंतु कोरोना महामारी के कठिन समय में ऐसे अनुसंधानों से समाज को कोई मदद नहीं मिल सकी है | इस संकट काल में समाज को मदद की सर्वाधिक आवश्यकता थी उस समय अनुसंधानों ने हाथ खड़े कर दिए |
महामारी जैसी इतनी बड़ी त्रासदी से जनता अकेली जूझती रही है सभी प्रकार के अनुसंधानों आचरणों उपायों से उसे ऐसी कोई विश्वसनीय मदद नहीं मिल सकी है जिसके बल पर यह कहा जा सके कि यदि यह मदद न मिली होती तो इससे भी अधिक नुक्सान हो सकता था | जिन लोगों ने कोविड नियमों का पालन किया और जिन्होंने नहीं किया अथवा जिन देशों ने लॉकडाउन लगाया और जिन्होंने नहीं लगाया उन दोनों में कोई ऐसा विशेष अंतर नहीं दिखाई पड़ा जिसे ऐसे प्रयासों का परिणाम माना जा सके |
कुलमिलाकर सभी विधाओं के विश्व वैज्ञानिकों ने महामारी को समझने के लिए बहुत प्रयत्न किए हैं,महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाने के लिए बहुत प्रयास किए हैं! महामारी काल में लोगों को संक्रमित होने से बचाने के लिए भी जो जो कुछ किया जा सकता था वो सब कुछ किया गया इसमें कोई संशय नहीं है| संक्रमित लोगों को रोगमुक्ति दिलाने के लिए भी बहुत प्रयास किए गए हैं किंतु ऐसे प्रयासों के द्वारा महामारी पीड़ित लोगों को पहुँचाई जा सकी यह चिंतन का विषय है |
महामारी संबंधी अनुसंधानों के आधार पर महामारी पैदा होने या उसके घटने बढ़ने के कारण खोजने के लिए जो अनुमान लगाए गए वे गलत निकल जाते रहे ! जो पूर्वानुमान लगाए जाते रहे वे भी गलत ही निकलते रहे !उपायों के नाम पर जो कोविड नियम बताए जाते रहे उनसे कितना लाभ हुआ ये इसलिए प्रमाणित नहीं हो सका क्योंकि जिन्होंने कोविड नियमों का पालन किया और जिन्होंने नहीं किया उन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने से कुछ विशेष अंतर प्रत्यक्ष नहीं दिखाई पड़ा |स्वीडन ने कोरोना की किसी लहर में न लॉकडाउन लगाया और न ही स्कूल बंद किए | इसके बाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के ताजा आंकड़ों बताते हैं कि यूरोपीय देशों में कोरोना से मौतों के मामले में स्वीडन काफी नीचले स्थान पर है। यानि यहाँ कोरोना से कम मौतें हुईं।पहली लहर में तो यहाँ मास्क धारण भी अनिवार्य नहीं किया गया | इसके बाद भी यहाँ संक्रमितों की संख्या अन्य देशों की तरह ही बढ़ी थी |
चिकित्सा का प्रभाव इसलिए प्रमाणित नहीं हो सका क्योंकि अस्पतालों में सघन चिकित्सा कक्षों में वेंटिलेटर पर पड़े पड़े भी बहुत लोगों की मृत्यु चिकित्सकों के सामने हो गई है | महामारी से मुक्ति दिलाने की दृष्टि से वैक्सीन का प्रभाव कितना पड़ा ये चिकित्सकों वैज्ञानिकों को ही पता होगा ! क्योंकि फरवरी 2021 के पहले तो वैक्सीन का कोई प्रभाव नहीं था इसके बाद भी बिना किसी उपाय के ही भारत में 18 सितंबर 2020 से कोरोना जनित संक्रमण दिनों दिन कम होते होते वर्षांत तक महामारी क्रमशः समाप्त होती चली जा रही थी जिसका श्रेय किसी औषधि प्रयोग को दिया जाना संभव नहीं है |वैसे भी रोग का सम्यक तरह से परीक्षण किए बिना चिकित्सा या औषधि निर्माण किस आधार पर किया जा सकता है ? महामारी की प्रकृति को समझना अंत तक संभव नहीं हो पाया है |
ऐसी परिस्थिति में ये गंभीर चिंतन का विषय है कि अभी तक किए गए अनुसंधानों के द्वारा महामारी से जूझती जनता को ऐसी कोई विशेष मदद नहीं पहुँचाई जा सकी जिसके लिए यह कहा जाए कि यदि ये अनुसंधान न किए गए होते तो और अधिक नुक्सान हो सकता था !
कुल मिलाकर महामारी का सामना करने की दृष्टि से अभी तक किए गए अनुसंधान यदि इतने ही कमजोर हैं तो भविष्य में घटित होने वाली संभावित महामारियों का सामना भावी पीढ़ियाँ क्या इसी प्रकार से करेंगी जिस विवशता में हम लोगों ने किया है या हमारी पीढ़ी प्रमाणित तौर पर कुछ ऐसा करके जाएगी जिससे भावी महामारियों के समय भी समाज संक्रमित नहीं होगा ! महामारी मुक्त समाज की स्थापना के उद्देश्य से अनुसंधानों के क्षेत्र में कुछ ऐसे कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है जो वर्तमान अनुसंधान पद्धति से अलग हों ,क्योंकि वर्तमान अनुसंधान पद्धति के आधार पर ही तो अभी तक महामारी और मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में जो अनुसंधान किए जाते रहे हैं उनके आधार पर अभी तक लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि सही नहीं निकले हैं | इसलिए भविष्य के लिए भी वर्तमान पद्धति के आधार पर अनुसंधान करके समय एवं धनराशि को और अधिक यूँ ही नहीं निरर्थक नहीं व्यय की जानी चाहिए अपितु सार्थक विकल्प खोजे जाने की आवश्यकता है | ऐसे प्राकृतिक विषयों से संबंधित अनुसंधानों को नए तरह से व्यवस्थित किए जाने की आवश्यकता है |
सोचने वाली बात है कि किसी एक देश का दूसरे देश के साथ मध्यमस्तरीय युद्ध होने पर उतने लोग नहीं मारे जाते हैं जितने लोगों की मृत्यु महामारी में संक्रमित होने से हुई है |इस आपदा का कोई सार्थक समाधान खोजे बिना पहले की महामारियों की तरह ही इसे भी यूँ ही भुला दिया जाना भविष्य के लिए उचित नहीं होगा | इसलिए सभी पक्षों की ओर से भविष्य के लिए कुछ विशेष परिणामप्रद तैयारी किए जाने की आवश्यकता है | जो भविष्य में आने वाली महामारियों के समय समाज के लिए कुछ तो मददगार सिद्ध हो सके |
महामारी के लिए सहयोगी अनुसंधानों की आवश्यकता !
विशेष बात : इसी भीषण वर्षा के बिषय में 2018 के अगस्त महीने का मौसम पूर्वानुमान मैंने मौसम विभाग के महा निदेशक डॉ.के जे रमेश जी की मेल पर 29 जुलाई 2018 को ही भेज दिया था !उसमें लिखा है कि अगस्त की एक से ग्यारह तारीख के बीच इतनी भीषण वर्षा दक्षिण भारत में होगी कि बीते कुछ दशकों का रिकार्ड टूटेगा !वर्षा का स्वरूप इतना अधिक डरावना होगा कि बचाव के लिए सरकारों के द्वारा किए जाने वाले अधिकतम प्रयास निरर्थक होंगे !"यह पूर्वानुमान हमारी मेल पर अभी भी पड़ा है जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया था कि मेरा वर्षा पूर्वानुमान सही निकला है किंतु उसे प्रोत्साहित नहीं किया है |
वर्तमान समय में प्रकृतिविज्ञान से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि प्रायः सभी प्राकृतिक घटनाएँ एक दूसरे से संबंधित होती हैं इसलिए सभी प्राकृतिक घटनाओं को समझने के लिए उन दूसरी घटनाओं को पहले समझना पड़ता है इसके लिए उन विषयों के विशेषज्ञ खोजने पड़ते हैं या फिर वो विशेज्ञता स्वयं अर्जित करनी पड़ती है यदि ऐसा न हुआ तो वे अनुसंधान अधूरे छूट जाते हैं |
_____________________________________________________________________________ महामारी मुक्त समाज की संरचना का संकल्प !
महामारी प्राकृतिक है इसमें होती है मौसम की भूमिका |
मौसम बदलने पर भी तरह तरह के रोग होते देखे जाते हैं जो एक निश्चित रहते हैं इसके बाद स्वतः शांत हो जाते हैं | इसलिए महामारी जैसे बड़े स्वास्थ्य संकट के पीछे भी मौसम की भूमिका हो इसे नकारा नहीं जा सकता है| वैसे भी महामारी को यदि प्राकृतिक रूप से पैदा हुआ माना जाएगा तो उसके लिए मौसम संबंधी इस प्रकार के अध्ययन अनुसंधान भी आवश्यक होंगे जिनके द्वारा प्रकृति के स्वभाव को समझना संभव हो | उपग्रहों रडारों की मदद से आँधी तूफानों या बादलों की उपस्थिति एक स्थान पर देखकर उनकी गति एवं दिशा के आधार पर ये कब कहाँ पहुँच सकते हैं इसका अंदाजा लगा लेना कोई विज्ञान नहीं है |यह उसी प्रकार का तुक्का है जैसे किसी नहर में पानी छोड़े जाने पर वह पानी बहकर कब किस शहर में पहुँचेगा या किसी नदी में आई बाढ़ कब किस शहर में पहुँचेगी | इसके विषय में अंदाजा लगा लिया जाता है |
इसी प्रकार से वर्तमान समय में उपग्रहों रडारों की मदद से बादलों आँधी तूफानों की एक स्थान पर उपस्थिति देखकर उसी की गति और दिशा के आधार पर उनके दूसरे स्थान पर पहुँचने के विषय में अंदाजा लगा लिया जाता है | इसमें प्रकृति के स्वभाव का अध्ययन सम्मिलित है|वस्तुतः ऐसे अंदाजों का कोई वैज्ञानिक वजूद नहीं होता है हवा का रुख बदलते ही मौसम संबंधी घटनाओं का रुख बदल जाता है और अंदाजे गलत निकल जाते हैं | इसप्रकार के तीर तुक्के यदि कभी कदाचित सही निकल भी जाते हैं तो भी वे रोगों महारोगों संबंधी अनुसंधानों के लिए उपयोगी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि ये प्रकृति के स्वभाव पर आधारित नहीं होते हैं जबकि महामारी का बनना बनना प्रकृति के स्वभाव से संबंधित नहीं होता है | इसके लिए प्रकृति के स्वभाव से संबंधित अनुसंधानों की आवश्यकता होती है | प्रकृति के स्वभाव को जितनी बारीकी से समझा जाएगा महामारी जैसे अनुसंधानों के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाना उतना ही आसान होगा |
वर्तमान समय प्रचलित मौसम संबंधी पूर्वानुमानों के नाम पर जो विधि अपनाई जाती है वो आँधी तूफान या बादलों जैसी मौसम संबंधी तैयार घटनाओं को देखकर अंदाजा लगाया जाता है किंतु ये घटनाएँ तैयार कैसे होती हैं ये किस प्रकार के वातावरण में कैसी घटनाएँ तैयार होती हैं उस प्रकार का वातावरण बनता कैसे है उसके बनने का कारण क्या होता है | यदि ये वातावरण ऋतुओं के आधार पर बनता है तो ऋतुओं का आधार क्या होता है यदि ऋतुओं का आधार समय होता है तो उस समय का आधार क्या होता है |
समय के उस आधार को अच्छी प्रकार से समझकर उस आधार पर समय संबंधी परिवर्तनों का अध्ययन अनुमान पूर्वानुमान आदि करना होगा|उसी अनुसंधानित समय के आधार पर पर ऋतुओं में उनके अपने न्यूनाधिक संभावित प्रभाव का अध्ययन करना होगा पर में कब होती हैं |
जिस प्रकार से भोजन निर्माण करते समय स्वास्थ्यकर एवं स्वादिष्ट भोजन बनाने के लिए उसमें प्रत्येक वस्तु उचित अनुपात में डाली जाती है | जिससे वह स्वादिष्ट तो बनती ही है इसके साथ साथ स्वास्थ्य को सुधारने वाली भी होती है | उन वस्तुओं का अनुपात यदि उस निर्धारित मात्रा से कम या अधिक हो जाता है तो उस निर्मित वस्तु का स्वाद तो बिगड़ता ही है उसका दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ता है | यह अनुपात यदि बहुत अधिक बिगड़ जाता है तो उस वस्तु का स्वाद अधिक बिगड़ता है एवं स्वास्थ्य भी अधिक बिगड़ जाता है | उस भोजन में यदि कोई ऐसी वस्तु आकस्मिक रूप से पड़ जाती है जिसका उसमें डाला जाना आवश्यक नहीं था या जो स्वास्थ्य के लिए अहितकर थी तो ऐसी परिस्थिति में वह निर्मित किया हुआ भोजन ही बेकार हो जाता है |
ऐसे ही प्राकृतिक वातावरण को स्वास्थ्यकर एवं सुखकर बनाए रखने के लिए ऋतुओं की परिकल्पना की गई है इस क्रम में सर्दी गरमी वर्षा आदि का प्रभाव उचित अनुपात में होता है तभी प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्यकर एवं सुखकर बना रह सकता है | ऋतु प्रभाव में न्यूनाधिकता होते ही प्राकृतिक वातावरण न सुखकर रह पाता है और न ही स्वास्थ्यकर !ऐसी परिस्थिति में तरह तरह के रोग पैदा होने लग जाते हैं | यह बिषमता यदि बहुत अधिक बढ़ जाती है तो बड़े रोग पैदा होने लगते हैं |
इसीप्रकार से मनुष्य शरीरों में प्राकृतिक तत्वों की उचित मात्रा में उपस्थिति बनी रहने तक शरीर स्वस्थ बना रहता है और वह संतुलन बिगड़ते ही शरीर अस्वस्थ रहने लगता है|यह संतुलन कई बार आतंरिक कारणों से बिगड़ता है और कई बार प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने के कारण बाह्यकारकों से बिगड़ता है | यदि केवल बाह्यकारकों से बिगड़ता है और आतंरिक कारण ठीक बने रहते हैं तो महामारी आने पर भी वह व्यक्ति स्वस्थ बना रहता है | कई बार महामारी न होने पर भी आतंरिक तत्वों की बिषमता होने के कारण शरीर रोगी रहने लग जाता है | यह परिस्थिति अधिक बिगड़ने पर कई बार महामारी न होने पर भी मृत्यु जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं |
कई बार आतंरिक और बाह्य कारकों का अनुपात साथ साथ बिगड़ता है | उस समय महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं | यह बिगड़ने का अनुपात जितने बड़े स्तर पर होता है उतनी बड़ी महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं |
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गणितविज्ञान से संबंधित प्राचीनवैज्ञानिक अनुसंधानों की उपयोगिता !
ऐसी परिस्थिति में वेद वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा प्रकृति से लेकर जीवन तक को समझना संभव हो सकता है वहाँ ऐसे विषयों को समझने के लिए विस्तार पूर्वक जानकारी दी गई है| जिसके द्वारा प्राकृतिक घटनाओं ,आपदाओं एवं कोरोना जैसी महामारियों के स्वभाव को समझते हुए उसके विषय मेंअनुमान या पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |
महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के विषय में अनुसंधान का उद्देश्य ऐसी
घटनाओं के स्वभाव प्रभाव का अनुमान और पूर्वानुमान लगाना रहा है |
भारत के प्राचीन वैज्ञानिक अनुसंधानों में इस बात का ध्यान रखा जाता था कि
ऐसी बड़ी दुर्घटनाओं में जो नुक्सान होना होता है वो प्रायः पहले झटके के
साथ हो जाता है उसके बाद ऐसे अनुसंधानों की उपयोगिता ही क्या रह जाती है फिर तो आपदा प्रबंधन का काम शुरू हो जाता है |
इसलिए सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों का अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना ही ऐसी घटनाओं से बचाव के लिए एक मात्र उपाय है यह जानते हुए भी महामारियों के विषय में अभी तक कोई प्रभावी विधा खोजी नहीं जा सकी है इसी लिए महामारी एवं उसकी लहरों के विषय में अभी तक कोई सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका जिसे संपूर्ण विश्व ने देखा है |
दूसरी तरफ भारत का प्राचीन गणित विज्ञान जिसके द्वारा सुदूर आकाश में घटित होने वाले सूर्य चंद्र ग्रहणों का पूर्वानुमान लगा लिया जाता है जो एक एक मिनट सही घटित होता है | इसमें सूर्य चंद्र और पृथ्वी के संचार को गणित के द्वारा समझकर ही हजारों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | इससे सूर्य के संचार को भारत के प्राचीन गणित विज्ञान के द्वारा समझने की क्षमता प्रमाणित होती है |
यह सर्व विदित है कि सूर्य के संचार से मौसमसंबंधी सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं तथा रोगों महारोगों (महामारियों)आदि का निर्माण होता है | इनका कारण सूर्य ही है | यही कारण है कि जब जिस प्रकार के रोगों महारोगों के पैदा होने का समय आता है उस समय उसी प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ भी घटित होने लगती हैं | ऐसी घटनाओं को देखकर महामारी के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है जबकि गणितविज्ञान के द्वारा महामारी जैसी घटनाओं का वर्षों पहले वानुमान भी लगाया जा सकता है |
गणितविज्ञान के द्वारा सूर्य के संचार को समझा जा सकता है और सूर्यसंचार के आधार प्राकृतिक घटनाओं आपदाओं एवं महामारियों के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | इससे ऐसे महारोगों को समझने में बड़ी मदद मिल सकती है |इसी उद्देश्य से महामारी और मौसम जैसे विषयों में गणितविज्ञान के आधार पर मैं विगत तीस वर्षों से अनुसंधान करता चला आ रहा हूँ |
इसी उद्देश्य से मैंने व्यक्तिगत स्तर पर अभी तक जिन जिन प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया है वो सही निकलता रहा है यहाँ तक कि उसी गणित विज्ञान के आधार पर मेरे द्वारा जो भी पूर्वानुमान लगाए महामारी जैसे अत्यंत कठिन विषय में भी लगाए गए अनुमान न केवल सही निकलते रहे हैं अपितु महामारी की जितनी भी लहरें आयी हैं उनके प्रारंभ और समाप्त होने के विषय में लगाए गए पूर्वानुमान भी सच होते रहे हैं | प्रमाण स्वरूप हमारे पास इसी विषय से संबंधित पीएमओ को भेजी गई मेलों के निम्नलिखित कुछ अंश हैं |
महामारी आगमन की आहट पहले ही लग गई थी !
मैं पिछले लगभग तैंतीस वर्षों से ऐसे प्राकृतिक बिषयों पर अनुसंधान करता आ रहा हूँ जिसमें भूकंप आँधी तूफ़ान सूखा वर्षा बाढ़ वायु प्रदूषण एवं तापमान का घटता बढ़ता स्तर प्राकृतिक स्वास्थ्य समस्याएँ मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं एवं महामारियों के बिषय में अनुसंधान करता आ रहा हूँ | प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण पैदा होने वाली सामाजिक राजनैतिक वैश्विक आदि समस्याओं के पैदा होने एवं उनका समाधान निकलने के बिषय में भी पूर्वानुमान लगाता आ रहा हूँ | उसी क्रम में सन 2010 के बाद सुदूर आकाश से समुद्र समेत समस्तप्रकृति में कुछ इस प्रकार के परिवर्तन दिखाई देने लगे थे जो निकट भविष्य में किसी बड़ी महामारी या अन्य प्रकार की प्राकृतिक आपदा या युद्ध आदि के द्वारा बड़ी संख्या में लोगों के मारे जाने की ओर संकेत देने लगे थे | सन 2013 के बाद प्राकृतिक वातावरण पूरी तरह बदला बदला दिखाई देने लगा था आकाशीय परिस्थितियाँ सूर्य चंद्रादि ग्रहों के विंबीय आकार प्रकार वर्ण आदि परिस्थितियाँ क्रमशः बदलती जा रही थीं वायुसंचार में बदलाव वृक्ष बनस्पतियों में परिवर्तन होने लगे थे | समय जैसे जैसे बीतते जा रहा था वैसे वैसे जल वायु अन्न आदि समस्त खाद्य वस्तुएँ अपने अपने गुण स्वाद आदि से विहीन होती जा रहीं थीं | औषधीय बनस्पतियाँ जिन गुणों के लिए जानी जाती थीं उनमें उसप्रकार के गुणों का ह्रास होता चला जा रहा था |
वायुतत्व दिनोंदिन अधिक चंचल एवं प्रदूषित होता जा रहा था| वायुमंडल में प्रदूषण ,बज्रपात की हिंसक घटनाएँ बार बार घटित होती देखी जा रही थीं | इसीलिए 2018 के अप्रैल मई में आँधी तूफानों की घटनाएँ बारबार घटित होने लगी थीं | चक्रवात जैसी हिंसक घटनाएँ घटित होते अक्सर देखी जाने लगी थीं |
पृथ्वीतत्व के स्थिरता संबंधी स्वाभाविक गुण विकृत होने लगे थे | धरती बार बार काँपने लगी थी भूकंपों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी |सुनामीजैसी घटनाओं के डरावने दृश्य दिखाई पड़ने लगे थे | महामारी काल में केवल भारत में ही एक हजार बार से अधिक भूकंप घटित हुए थे |
प्रकुपित अग्नितत्व हिंसक स्वरूप धारण करता जा रहा था | कहीं भी कभी भी आग लगने की घटनाएँ घटित होती देखी जा रही थीं इसीलिए तो 2016 अप्रैल में बिहार सरकार ने दिन में हवन करने एवं चूल्हा जलाने आदि पर रोक लगा दी गई थी |
जलतत्व में दिनोंदिन विकृति आती देखी जा रही थी कहीं भीषण बाढ़ तो कहीं सूखा था | जमीन के अंदर का जलस्तर दिनों दिन कम होता जा रहा था |जल की गुणवत्ता में कमी होती जा रही थी !बादलों के फटने की घटनाएँ देखी जाने लगी थीं |
आकाश अक्सर धूम्रवर्ण या लाल पीला होता दिख रहा था !नीला एवं स्वच्छ आकाश तो वर्ष के कुछ महीनों में ही दिखाई देने लगा था | इसके अतिरिक्त आकाश में और भी प्रतिसूर्य गंधर्वनगर जैसी घटनाएँ दिखने लगीं थीं |
इस प्रकार से पंचतत्वों में बढ़ते विकार बनस्पतियों एवं खाद्यपदार्थों के स्वाद एवं गुणवत्ता में आती कमी मनुष्य समेत सभी जीव जंतुओं के स्वभाव में बढ़ते अस्वाभाविक बदलाव किसी बड़ी विपदा की ओर संकेत करने लगे थे | ऐसी घटनाओं का जब गणितीय पद्धति से परीक्षण किया गया तो महामारी जैसी किसी बड़ी हिंसक प्राकृतिक घटना का आभास होने लगा था |
इसलिए इसीप्राचीन अनुसंधान के आधार पर सन 2017 से ही वर्तमान महामारी के बिषय में मुझे संभावना दिखने लगी थी इस बिषय में मैंने संबंधित मंत्रालयों सरकारी विभागों निजीसंस्थाओं एवं विविध मीडिया माध्यमों से अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का प्रयत्न करता रहा हूँ | इसी संदर्भ में सामाजिक स्वयं सेवी संगठनों एवं निजी संगठनों के बड़े बड़े नेताओं से संपर्क करके भारत सरकार तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयास करता रहा कई पत्र रजिस्टर्ड डॉक से भी भेजे हैं | पीएमओ की मेल पर भेजकर प्रधानमंत्री जी से मैंने मिलने के लिए समय माँगा किंतु मुझे अपनी बात भारत के प्रधानमंत्री जी तक पहुँचाने का अवसर नहीं मिल सका ऐसे प्रयासों में भटकते भटकते काफी लंबा महत्त्वपूर्ण समय यूँ ही बीतता जा रहा था और प्राकृतिक परिस्थितियाँ दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थीं |
कोई भी महामारी प्रारंभ होने से वर्षों पहले बिपरीत समयजनित परिस्थितियाँ संपूर्ण प्रकृति वातावरण प्रदूषित कर लेती है ताकि मनुष्य जो कुछ खाए पिए !जो औषधि ले ,जो बनौषधि ले, जहाँ साँस ले वह हवा ,जो कुछ सूँघे वह पदार्थ एवं जिस जिस वस्तु का स्पर्श करे वह सबकुछ बिषैले समयजनित परिस्थितियों से प्रदूषित हो जाता है | ये सब होने लगा था | अनेकों प्रकार के प्राकृतिक संकेतों के आधार पर प्रकृति महामारी की दिशा में चल पड़ी थी | यहीं से महामारी को नियंत्रित करने लायक परिस्थितियाँ दिनोंदिन जा रही थीं | अब तो अपने बचाव के लिए ही जो पथ्य परहेज बताया जाता वही करने का समय बचा था जितना बचाव हो जाता उतना ही बहुत था किंतु मेरे लिए अपनी बात संपूर्ण समाज में पहुँचा पाना संभव भी न था दूसरी बात समाज में मेरी विश्वसनीयता इस प्रकार की नहीं थी कि लोग मेरी बातों पर विश्वास कर लेते |
14 अग॰ 2018 को मैंने स्वास्थ्य मंत्री जी को सूचित किया-"सौर मंडलीय दृष्टि से घटित हो रही खगोलीय घटनाओं के कारण सुदूर अंतरिक्षीय वायु मंडल में रोगकारक वातावरण निर्मित हो रहा है उस वातज प्रदूषण संबंधी विकृतियों के लक्षण वृक्षों बनस्पतियों में होने वाले सूक्ष्म बदलावों के आधार पर अभी से अनुभव किए जा सकते हैं! ऐसे बदलावों का पूर्वानुमान सौर मंडलीय गणितीय प्रक्रिया के द्वारा एवं बनस्पतियों में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर लगाया जाता है ! वायुमंडल में व्याप्त यह खगोलीय प्रदूषण रोगकारक है इसका दुष्प्रभाव 16 अगस्त 2018 से लेकर 1 सितम्बर 2018 तक विशेष अधिक होगा जिससे वर्षा संबंधी गंभीर रोगों से विशेष पीड़ाप्रद होगा ! इसीकारण से इसी समय में डेंगू चिकनगुनियाँ जैसे रोग विशेष भयावह रूप धारण करेंगे !ऐसे समय में आकाशज रोगों के फैलने पर एक से एक अच्छी औषधियाँ भी भी निष्प्रभावी सिद्ध होते चली जाएँगी और रोग दिनों दिन बढ़ते चले जाएँगे ! 1 सितम्बर 2018के बाद इस प्रदूषण की मात्रा क्रमशःकम होते चली जाएगी और लोग स्वस्थ होते चले जाएँगे !इस सामायिक स्वच्छता अभियान में 25 दिन और लगेंगे अर्थात 26 सितंबर तक इन आकाशज रोगों से सभी रोगियों को मुक्ति मिल जाएगी !"
10 सितंबर 2018 को मैंने अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया-"इस समय भूकंपीय क्षेत्र (दिल्ली ,मेरठऔर हरियाणा का झज्जर ) के मध्य के वातावरण में सीमा से अधिक गरमी बढ़नी
स्वाभाविक है !यहाँ सूखीखाँसी तथा साँस लेने की समस्या एवँ आँखों में जलन आदि जानलेवा
होती जाएगी !गर्मी की अधिकता से होने वाले और रोग भी अधिक बढ़ेंगे !"
इसके तुरंत बाद से दिल्ली और मेरठ के बीच के क्षेत्र के बच्चों में गला
घोंटू रोग बढ़ गया था | 10सितंबर से 23 सितंबर 2018 तक काफी बच्चे मारे गए
थे |ये घटना महामारी की ही अंग थी |
इस प्रकार से समाज क्रमशःकिसी महारोग की ओर बढ़ता चला जा रहा था |यह देखकर मैंने प्रधानमंत्री जी से मिलकर बताने की आशा छोड़कर 20 अक्टूबर 2018 को प्रधानमंत्री जी को एक मेल भेजी थी उस पत्र का स्वास्थ्य विषयक जो अंश है वही यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-
"10 अक्टूबर 2018 से लेकर 30 नवंबर 2018 तक लगभग 50 दिन का समय सारे विश्व के लिए ही अच्छा नहीं है !इसमें स्वाँस,सूखी खाँसी की समस्याएँ काफी अधिक बढ़ जाएँगी !घबड़ाहट बेचैनी कमजोरी चक्कर आने जैसे रोगों से भय फैलेगा !यद्यपि ऐसी घटनाएँ इस समय में सारे विश्व में घटित होंगी !"
उस मेल का मुझे कोई उत्तर नहीं मिला मुझे पता नहीं कि मेरी मेल देखी गई या नहीं !इसी प्रकार से धीरे धीरे सन 2019 में ही महामारी जनित सामान्य विकार प्रारंभ हो गए थे जिन्हें मौसम बदलने की घटनाओं से जोड़ कर देखा जाता रहा | इसी क्रम में सन 2020 प्रारंभ होने के साथ साथ महामारी भी प्रारंभ हो चुकी थी | उसकी चर्चा सभी जगह सुनाई देने लगी थी महामारी को लेकर तरह तरह की आशंकाएँ व्यक्त की जा रही थीं महामारी के बिषय में लोग तरह तरह की अफवाहें फैलाए जा रहे थे | मीडिया के माध्यमों से भारतसरकार भी चिंतित दिखाई दे रही थी किंतु चाहकर भी मैं अपनी बात भारत के प्रधानमंत्री जी तक नहीं पहुँचा सका था | इसलिए अब निराश हताश होकर शांत बैठ गया था |
कोरोना महामारी प्रारंभ हुई और पहली लहर
30 जनवरी 2020 को भारत के केरल राज्य में कोविड-19 का पहला मामला दर्ज किया गया था, 3 फरवरी 2020 तक बढ़कर संख्या तीन हो गयी| इसके बाद मार्च के महीने में संक्रमित मामलों की संख्या बढ़ गयी 12 मार्च 2020 को, एक 76 वर्षीय व्यक्ति जो सऊदी अरब[9] से लौटा था जिसकी मृत्यु हुई और यह देश में कोरोना वायरस से होने वाली पहली मृत्यु थी। 15 मार्च 2020 को पुष्ट मामलों की संख्या 100 हुई इस प्रकार से महामारी संक्रमितों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी |
महामारी के विषय में कुछ विशेष पता न होने के कारण तरह तरह की आशंकाएँ अफवाहें आदि फैल रही थीं जिससे समाज में और अधिकभय का वातावरण बनता चला जा रहा था |महामारी के जन्म स्वभाव प्रभाव विस्तार प्रसारमाध्यम अंतर्गम्यता आदि को ठीक ठीक जाने बिना महामारी से संक्रमितों को राहत पहुँचाना संभव न था | महामारी संक्रमितों को रोगमुक्ति दिलाने वाली प्रभावी चिकित्सा करना या औषधियॉँ निर्माण करना ही संभव था | प्रकृति समझना बहुत आवश्यक था | इसलिए यह जानना बहुत आवश्यक था -"1.कोरोना प्राकृतिक है या मनुष्यकृत ,2. कोरोनाहवा में विद्यमान है या नहीं ?आदि
इन शंकाओं का निराकरण करते हुए गणितविज्ञान से प्राप्त अनुभवों के आधार पर मैंने 19 मार्च 2019 को पीएमओ की मेल पर एक मेल भेजी -
19 मार्च 2019 को पीएमओ की मेल पर भेजी गई मेल के कुछ अंश -
महामारी के विषय में लिखा था -"महामारी में होने वाले रोग को न तो पहचाना जा सकता है और न ही इसकी औषधि बनाई जा सकती है |महामारी में होने वाले रोग के वेग को प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर घटाया जा सकता है|प्रकृति
के द्वारा इस समय औषधियों बनौषधियों आदि की शक्ति समाप्त कर दी गई है इसलिए महामारी में
होने वाले रोगों में प्रयोग की गई औषधियाँ निष्प्रभावी रहेंगी |" यह सब कुछ 19 मार्च 2020 को मैंने पीएमओ की मेल पर भेजा था |
1. कोरोना प्राकृतिक है -" किसी महामारी पर नियंत्रण न हो पाने का कारण यह है कि कोई भी महामारी तीन चरणों में फैलती है और तीन चरणों में ही समाप्त होती है | महामारी फैलते समय सबसे बड़ी भूमिका समय की होती है | सबसे पहले समय की गति बिगड़ती है ऋतुएँ समय के आधीन हैं इसलिए अच्छे या बुरे समय का प्रभाव सबसे पहले ऋतुओं पर पड़ता है ऋतुओं का प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है | "
2. कोरोनाहवा में विद्यमान है -"पर्यावरण बिगड़ने का प्रभाव वृक्षों बनस्पतियों फूलों फलों फसलों आदि समस्त खाने पीने की वस्तुओं पर पड़ता है वायु और जल पर भी पड़ता है इससे वहाँ के कुओं नदियों तालाबों आदि का जल प्रदूषित हो जाता है | इन परिस्थितियों का प्रभाव जीवन पर पड़ता है इसलिए शरीर ऐसे रोगों से पीड़ित होने लगते हैं जिनमें चिकित्सा का प्रभाव बहुत कम पड़ पाता है यहीं से महामारी फैलने लगती है |"
20 जून 2020 को कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी, इंसानों में काबू के बावजूद जानवर संक्रमण फैला सकते हैं|
20-4-2020 को - नदी के पानी में कोरोना के लक्षण !पेरिस की सीन नदी और अवर्क नहर के पानी में कोरोना कोरोना वायरस का संक्रमण पाया गया है !
4. महामारी में होने वाले रोग के वेग को प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर घटाया जा सकता है -"ऐसी महामारियों को सदाचरण स्वच्छता उचित आहार विहार आदि धर्म कर्म ,ईश्वर आराधन एवं ब्रह्मचर्य आदि के अनुपालन से जीता जा सकता है |"
"24 मार्च 2020 के बाद इस महामारी का समाप्त होना प्रारंभ हो जाएगा जो क्रमशः 6 मई तक चलेगा | |उसके बाद के समय में पूरी तरह सुधार हो जाने के कारण संपूर्ण विश्व अतिशीघ्र इस महामारी से मुक्ति पा सकेगा |"
"यह महामारी 9 अगस्त 2020 से दोबारा प्रारंभ होनी शुरू हो जाएगी जो 24 सितंबर 2020 तक रहेगी !उसके बाद यह संक्रमण स्थायी रूप से समाप्त होने लगेगा और 16 नवंबर 2020 के बाद यह स्थायी रूप से समाप्त हो जाएगा !"
इसी विषय से संबंधित एक मेल मैंने 7 सितंबर 2020 को भेजी थी!उसका मुख्य विषय यह है -
" श्रीमान जी | गणितविज्ञान की दृष्टि से कोरोना संक्रमण बढ़ने का समय केवल 24
सितंबर तक ही है इसके बिषय में मैंने 16 जून 2020 को आपकी
मेल पर एक पत्र लिखकर निवेदन किया था "9 अगस्त से कोरोना संक्रमण फिर से
बढ़ने लगेगा जो 24 सितंबर तक क्रमशः बढ़ता चला जाएगा | 25 सितंबर से कोरोना
संक्रमण कम होना प्रारंभ होगा और 13 नवंबर 2020 तक धीरे धीरे समाप्त होता
चला जाएगा |" हमारे द्वारा किए गए इस पूर्वानुमान के अनुशार ही कोरोना संक्रमण 9 अगस्त से बढ़ना प्रारंभ हुआ
है और 25 सितंबर से समाप्त होना प्रारंभ हो जाएगा | इसलिए 25 सितंबर से पहले यदि किसी औषधि या वैक्सीन आदि के प्रभाव का
परीक्षण प्रमाणित हो चुका होता जिसके सेवन से किसी देश प्रदेश जिला आदि को
कोरोना संक्रमण से मुक्ति दिलाने में सफलता मिल चुकी होती तब तो उसे कोरोना
की औषधि या वैक्सीन के रूप में मान्यता देना न्यायसंगत होता किंतु अभी तक
ऐसा कुछ हो नहीं पाया है | 25 सितंबर के बाद कोरोना के स्वतः समाप्त होने
का समय प्रारंभ हो चुका होगा | उस समय के प्रभाव से कोरोना संक्रमण हमेंशा
हमेंशा के लिए क्रमशः स्वतः समाप्त होता चला जाएगा |ऐसी परिस्थिति में 25 सितंबर के बाद बनी किसी भी औषधि या वैक्सीन के
प्रभाव का परीक्षण होना संभव न हो पाने के कारण उसे कोरोना की औषधि या
वैक्सीन के रूप में मान्यता दिया जाना न्यायसंगत नहीं होगा | "
ये दोनों मेलें कोरोना का पीक आने से पहले की हैं फिर भी ये दोनों ही पूर्वानुमान सही सिद्ध हुए हैं|16 जून 2020 को भेजी गई मेल के अनुशार ही 9 अगस्त2020 से संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी थी गणितगणना के हिसाब से इसका पीक भी 24 सितंबर 2020 को ही आया होगा किंतु संक्रमितों की संख्या गिनने के लिए हमारे पास न तो कोई व्यवस्था है और न ही उसे कोई मानेगा | सरकारी संख्या प्रतिदिन होने वाली जाँच के आधार पर तय होती है किसी दिन कम जाँच हुई तो संख्या कम हो जाती है और यदि किसी दिन जाँच अधिक हुई तो संख्या अधिक हो जाती है | इस हिसाब से सरकारी संख्या में कमी एवं बढ़ोत्तरी मनुष्यकृत हो सकती है जबकि हमारी तो गणितविज्ञान के द्वारा प्राप्त संख्या है जो दूसरी लहर आने के पहले घोषित की गई थी | उस समय दूसरी लहर के विषय में दूर दूर तक किसी को पता ही नहीं था | इसलिए मेरा अनुमान है कि 24 सितंबर 2020 को ही पीक आया होगा | गणित की दृष्टि से यही तर्कसंगत लगता है | यदि 17 सितंबर 2020 को भी माना जाता है कि उस दिन सबसे अधिक संक्रमितों की संख्या आयी थी तब भी यह बहुत बड़ा अंतर नहीं है | उसके बाद संक्रमित रोगियों की संख्या क्रमशः कम होती चली जा रही थी | इसी बीच भारत सरकार में स्वास्थ्य मंत्री डॉ.हर्ष बर्द्धन जी ने 10 अक्टूबर 2020 को एवं नीतिआयोग के डॉ.वी.के.पाल साहब ने 14अक्टूबर 2020 को अपने अपने वक्तव्यों में कहा - "सर्दी में कोरोना संक्रमण बढ़ जाएगा |" कुछ वैज्ञानिकों ने कहा - "सर्दी में वायुप्रदूषण बढ़ने के कारण कोरोना संक्रमण बढ़ जाएगा |" गणित विज्ञान की दृष्टि से ऐसा होना इसलिए संभव न था क्योंकि समय ठीक चल रहा था |
इसलिए इसीबिषय में मैंने 20 अक्टूबर 2020 को पीएमओ को पत्र भेजकर सर्दी के मौसम में तापमान कम होने से कोरोना नहीं बढ़ने के विषय में |निवेदन किया था | इस पत्र में लिखा था - "हमारे अनुसंधान के अनुशार 16 नवंबर 2020 में कोरोना महामारी बिना किसी दवा या वैक्सीन आदि के ही संपूर्ण रूप से हमेंशा हमेंशा के लिए समाप्त हो जाएगी |"
गणित विज्ञान और समय का प्रभाव
गणित विज्ञान की दृष्टि से प्राकृतिक कोरोना महामारी पहली लहर के साथ ही यहीं से संपूर्ण रूप से समाप्त हो जानी चाहिए थी और ऐसा होते भी देखा जा रहा था | उस हिसाब से तो कोरोना उसी समय से समाप्त हो चुका होता !ऐसा होते प्रत्यक्ष देखा भी जा रहा था !महामारी धीरे धीरे समाप्त होती चली जा रही थी | अक्टूबर - नवंबर 2020 तक संक्रमितों की संख्या धीरे धीरे बहुत कम हो गई थी|इसीबीच कई देशों में अचानक वैक्सीन लगाने की तैयारियाँ की जाने लगीं |वैक्सीन लगाने के लिए यह समय अच्छा नहीं था इसलिए वैक्सीनजनित परिणाम अच्छे होंगे | गणितविज्ञान की दृष्टि से ऐसी आशा नहीं की जा सकती थी |
प्राचीन गणित विज्ञान की दृष्टि में किसी औषधि के द्वारा रोग या महारोग से
मुक्ति दिलाने में समय की बहुत बड़ी भूमिका मानी जाती थी | इसी दृष्टि से
रोग प्रारंभ होने के समय की एवं चिकित्सा प्रारंभ होने के समय की बहुत बड़ी
भूमिका होती है | समय ठीक हो तो रोग या महारोग स्वतः समाप्त हो जाते हैं
और समय न ठीक हो ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए की जाने वाली अच्छी से
अच्छी चिकित्सा के परिणाम भी चिकित्सा के विपरीत होते देखे जाते हैं |
इसीलिए 25 सितंबर 2020 से अच्छा समय प्रारंभ होते ही बिना किसी प्रभावी
चिकित्सकीय व्यवस्था के भी संक्रमितों की संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही
थी जबकि समय का प्रवाह बिगड़ते ही 8 दिसंबर 2020 से ब्रिटेन में वैक्सीन दी
गई उसके तुरंत बाद से वहाँ संक्रमितों की संख्या अचानक बढ़ने लगी थी जबकि
उससे पहले संक्रमितों की संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही थी | संपूर्ण
विश्व की यही स्थिति थी | भारत में भी ऐसा ही होते देखा गया था | यहाँ भी
वैक्सीनेशन प्रारंभ होते ही संक्रमण बढ़ना प्रारंभ हो गया था | यह समय ही
ऐसा था | पुराने लोगों को अक्सर कहते सुना जाता था समय ही बुरा हो तो कोई प्रयास काम नहीं आता है |
वैसे भी मैं चिकित्सा वैज्ञानिक नहीं हूँ इसलिए वैक्सीन के गुण दोषों के विषय में मुझे कोई जानकारी है नहीं किंतु अच्छे बुरे समय का अनुभव मुझे है | कोई रोग होने या उसकी चिकित्सा होने में कुछ कारण प्रत्यक्ष होते हैं कुछ अप्रत्यक्ष | कई बार प्रत्यक्ष रूप से किसी को कोई छोटा सा रोग होता है उसी समय उसकी चिकित्सा प्रारंभ कर दी जाती है | इस स्थिति में चिकित्सा सिद्धांत के अनुशार तो प्रत्यक्ष रूप से चिकित्सा मिलते ही प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ने वाले रोग से मुक्ति मिल ही जानी चाहिए थी किंतु व्यवहार में ऐसा नहीं देखा जाता है कई बार चिकित्सा मिलने के बाद भी रोग बढ़ते चला जाता है |ऐसे प्रकरणों में कई बार तो मृत्यु तक होते देखी जाती है |
ऐसे प्रकरणों में चिकित्सकीय प्रयासों के विरुद्ध परिणाम प्राप्त होने के
लिए जिम्मेदार कोई प्रत्यक्ष कारण भले न दिखाई देता हो किंतु गणित विज्ञान
की दृष्टि से इसका कारण
'समय' है जो मनुष्यकृत प्रयासों के विरुद्ध परिणाम प्रदान करने में सक्षम
होता है | समय के प्रभाव को जो लोग नहीं भी स्वीकार करते हैं अच्छे बुरे
परिणाम तो वे भी देख ही रहे होते हैं |प्रयत्नों के विरुद्ध परिणाम आने के
लिए जिम्मेदार प्रायः प्रत्यक्ष कोई कारण दिखाई ही नहीं पड़ता है |
चिकित्सा विज्ञान मेरा विषय नहीं है इसलिए वैक्सीन के प्रभाव से मैं
परिचित नहीं हूँ इसलिए इसपर किसी प्रकार की हमारे द्वारा की गई टिप्पणी
उचित नहीं होगी |गणित विज्ञान के माध्यम से अच्छे और बुरे समय के प्रवाह को समझना मेरा विषय रहा है जिस विषय में मैं इतने लंबे समय से अनुसंधान करता आ रहा हूँ | इसलिए मैं समय के प्रभाव से परिचित हूँ | इसलिए
मेरा अनुमान वैक्सीन के गुण दोषों से संबंधित न होकर अपितु वैक्सीन जिस
समय लगाई जा रही थी उस समय से संबंधित है | उसी प्रभाव से संक्रमितों की
संख्या बढ़ने का हमें पहले से अनुमान था जिसकी चर्चा मैंने इस मेल में की है
|
हमारे द्वारा 23 दिसंबर 2020 को पीएमओ को भेजे गए मेल के अंश -
मैंने पीएमओ से वैक्सीन न लगावाने के लिए निवेदन किया था और यदि लगवाना
भी हो तो बहुत सोच बिचार कर बहुत सोच बिचार कर लगाने के लिए निवेदन किया था
उस मेल का इस बिषय से संबंधित अंश :-
23 दिसंबर 2020 को मेल भेजकर पीएमओ को सूचित करने का मेरा उद्देश्य यही था कि वैक्सीन लगाने का कार्यक्रम या तो रोका जाएगा और या फिर वैक्सीन लगने के बाद संभावित संक्रमण बढ़ने की आशंका को ध्यान में रखते हुए उसे नियंत्रित करने के लिए पहले आवश्यक तैयारियॉँ कर लेने के बाद वैक्सीन लगाई जाएगी किंतु मेरे पूर्वानुमान के अनुशार वैक्सीन लगने के बाद संक्रमण दिनोंदिन अनियंत्रित होता चला गया !
5. "प्रधानमंत्री जी !यदि अब भी मैं मौन बैठा रहा तो प्रकुपित ईश्वरीय शक्तियाँ विश्वका चेहरा बर्बाद कर देने पर आमादा दिख रही हैं | दैवी शक्तियों का मानवजाति पर इतना अधिक क्रोध !आश्चर्य !! महोदय ! ऐसी परिस्थिति में जनता की ब्यथा से ब्यथित होकर व्यक्तिगत रूप से मैं एक बड़ा निर्णय लेने जा रहा हूँ |अपने अत्यंत सीमित संसाधनों से कल अर्थात 20 अप्रैल 2021 से "श्रीविपरीतप्रत्यंगिरामहायज्ञ" अपने ही निवास पर गुप्त रूप से प्रारंभ करने जा रहा हूँ | यह कम से कम 11 दिन चलेगा ! इसयज्ञ रूपी 'ईश्वरीयन्यायालय' में विश्व की समस्त भयभीत मानव जाति की ओर से व्यक्तिगत रूप से पेश होकर क्षमा माँगने का मैंने निश्चय किया है |मुझे विश्वास है कि ईश्वर क्षमा करके विश्व को महामारी से मुक्ति प्रदान कर देगा | यज्ञ प्रभाव के विषय में मेरा अनुमान है कि ईश्वरीय कृपा से 20 अप्रैल 2021 से ही महामारी पर अंकुश लगना प्रारंभ हो जाएगा ! 23 अप्रैल के बाद महामारी जनित संक्रमण कम होता दिखाई भी पड़ेगा !और 2 मई के बाद से पूरी तरह से संक्रमण समाप्त होना प्रारंभ हो जाएगा |"
कोरोना महामारी की चौथी लहर 27 फरवरी 2022 से प्रारंभ होगी और 8 अप्रैल 2022 तक क्रमशः बढ़ती चली जाएगी |इसके बाद 9 अप्रैल 2022 से भगवती दुर्गा जी की कृपा से महामारी की चौथी लहर समाप्त होनी प्रारंभ हो जाएगी और धीरे धीरे समाप्त होती चली जाएगी | महामारी की चौथी लहर के विषय में मैं जो पूर्वानुमान बता रहा हूँ वास्तविकता में वह महामारी न होकर ऋतु जनित बिषविकार है इससे महामारी की तरह डरने या डराने की आवश्यकता नहीं है फिर भी इस समय अचानक संक्रमितों की संख्या बढ़ने के कारणइससे महामारी की तरह ही सावधान रहने की आवश्यकता है |
विशेष बात यह है कि हमने इसे चौथी लहर लिखा है किंतु वैज्ञानिक लोग इसे चौथी लहर नहीं मानते हैं | इस समय भी समस्त प्राकृतिक वातावरण में व्याप्त विषाणुओं का प्रभाव 10 अप्रैल 2022 से कम होना प्रारंभ हो गया था जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष दिखने में कई बार कुछ समय तो लग ही जाता है किंतु उसके बाद कहीं बढ़ने नहीं पाया | किसी चलती हुई गाड़ी को ऊर्जा मिलना अचानक बंद हो जाए तो भी कुछ दूर तो चला ही करती है वही महामारी की इस लहर के विषय में भी हुआ है |
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महामारियाँ हमेंशा बड़े वेग से अचानक हमला करती हैं जिससे बड़ीसंख्या में लोग संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं | ऐसे महारोगों से बचाव के लिए तुरंत प्रयत्न प्रारंभ करने होते हैं | ऐसा किया जाना तभी संभव है जब बचाव के लिए पहले से तैयारी करके रखी गई हो | पहले से तैयारी किया जाना तभी संभव है जब महामारी के आगमन के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि पहले से पता हों | महामारी के पहुँचने से पहले वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा महामारी की संभावित प्रकृति को अच्छी प्रकार से न केवल समझ लिया गया हो अपितु महामारी से बचाव के लिए उस प्रकार की सावधानी बरती जाने लगी हो आहार बिहार रहन सहन आदि संतुलित कर लिया गया हो | औषधिनिर्माण आदि आवश्यक तैयारियाँ भी करके रखी जा चुकी हों |
इसप्रकार की सघन तैयारियों के साथ तो महामारियों के सामने कुछ समय तक ठहरा जा सकता है और अत्यंत सक्रियता पूर्वक बचाव की कुछ उम्मींद की जा सकती है | इसके अतिरिक्त यदि यह सोचा जाता है कि महामारी आने के बाद बचाव के लिए उपाय किए जाएँगे तो यह केवल दिखावा ही होगा इससे बचाव की आशा नहीं की जा सकती है | ऐसे प्रयासों से समाज को कोई मदद मिलेगी इसकी तो कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए |
सामान्य रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा करने के लिए रोगी की प्रतिरोधक क्षमता जैसी बातों पर बिचार करना होता है| ऐसे ही रोग की आक्रामकता बिषैलापन वेग आदि का अध्ययन करना होता है उस रोग के स्वभाव को समझने एवं उससे बचाव हेतु उपाय सोचने करने के लिए कुछ समय तो चाहिए ही होता है |इस प्रक्रिया का पालन तो सामान्य रोगियों के लिए की चिकित्सा के लिए भी करना पड़ता है | महामारी जैसे इतने भयानक महारोग से बचाव के लिए तो और अधिक सक्रियता निभानी पड़ेगी और अधिक तैयारियाँ करके पहले से रखनी होंगी | इसके लिए महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना आवश्यक माना जाता है इसके बिना ऐसी तैयारियाँ संभव ही नहीं हैं | महामारी संबंधित अनुमान पूर्वानुमान के लिए अलग अलग प्रयत्न किए जा रहे हैं |
वैज्ञानिकों के द्वारा कहा जा रहा है कि महामारी के पैदा होने पर या इसकी लहरों के आने जाने पर मौसम संबंधी घटनाओं का प्रभाव पड़ता है | कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान बढ़ने घटने का प्रभाव पड़ता है | कुछ मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि महामारी हर वर्ष तो आती नहीं है ये तो सौ दो सौ वर्षीय अत्यंत लंबे अंतराल के बाद आती है अतः महामारी संबंधी अध्ययनों अनुसंधानों के लिए अत्यंत लंबे अंतराल वाले मौसम संबंधी संभावित परिवर्तनों का पूर्वानुमान लगाना पड़ेगा | कुल मिलाकर महामारी को समझने के लिए मौसमसंबंधी सभी प्रकार के परिवर्तनों के सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता है | संभवतः इसी की आपूर्ति के लिए महामारी संबंधी अध्ययनों अनुसंधानों की प्रक्रिया में अब भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) को भी सम्मिलित किया गया है |
जलवायु परिवर्तन और मौसम !
वैज्ञानिकों के द्वारा स्थापित मान्यता के अनुशार जलवायुपरिवर्तन मौसम को प्रभावित करता है और मौसम स्वास्थ्य को प्रभावित करता है मौसम संबंधी बड़े उत्पात महामारियों की उत्पत्ति के कारण बनते हैं |इसलिए महामारियों से संबंधित किसी भी अनुसंधान के लिए मौसम संबंधी घटनाओं का अध्ययन अनुसंधान पूर्वक पूर्वानुमान लगाया जाना बहुत आवश्यक है | चूँकि मौसम संबंधी घटनाओं पर जलवायुपरिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है इसलिए जलवायु परिवर्तन के मौसम पर पड़ने वाले प्रभाव के बिषय में सही सही अनुसंधान किए बिना मौसम से प्रभावित होने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सही एवं सटीक अध्ययन कैसे किया जा सकता है और महामारियों के बिषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है |
विशेष बात यह है मौसम का जो सहज क्रम बना हुआ है जिसमें सर्दी के समय में उचित मात्रा में सर्दी होती है और गर्मी की ऋतु में उचित मात्रा में गरमी होती है तथा वर्षा के समय उचित मात्रा में वर्षा होती है | जब तक ऐसा क्रम अपने सहज प्रवाह में चलता रहता है तब तक न तो मौसम पूर्वानुमान लगाने की विशेष आवश्यकता होती है और न ही ऐसे समय में महामारियों के ही पैदा होने की दूर दूर तक कोई संभावना रहती है |
सर्दी की ऋतु सर्दी बहुत कम या बहुत अधिक होने लगे या उसकी समयावधि बहुत अधिक घट या बढ़ जाए !ऐसा ही वर्षाऋतु में वर्षा को लेकर हो और गर्मी के समय में ऐसा ही गर्मी के संबंध में असंतुलन देखा जाए तो वैज्ञानिक भाषा में ऐसी घटनाओं को जलवायु परिवर्तन के नाम से जाना जाता है | उन्हीं के द्वारा कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण घटित हुई घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है और यदि सभी घटनाएँ संतुलित मात्रा में ही घटित होती रहें तो पूर्वानुमानों की आवश्यकता ही क्या है वो तो सबको वैसे ही पता है |
अनंतकाल से चला आ रहा मौसम का यह क्रम जब टूटता है और वह जिस सीमा तक टूटता है उसी स्तर के प्राकृतिक रोग प्रारंभ होने की संभावना होती है और जब बड़े प्राकृतिक विप्लव होते हैं तब महामारियों का निर्माण होने की संभावना होती है |
मौसम वैज्ञानिकों की समस्या यह है कि मौसम का क्रम टूटने या प्राकृतिक विप्लवों को वो जलवायु परिवर्तन मान चुके हैं और जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान लगाया नहीं जा सकता ऐसा पहले ही कहा जा चुका है | जलवायु परिवर्तन के कारण घटित घटनाओं का स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है | यदि उनका पूर्वानुमान वे लगा ही नहीं सकेंगे तो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा कल्पित विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली (Early Health Warning System) संबंधी अनुसंधान प्रक्रिया में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग को सम्मिलित किए जाने का उद्देश्य क्या होगा और उस प्रकार के अध्ययनों में उनकी सार्थक भूमिका किस प्रकार की होगी |
सामान्यतौर पर प्रत्येक वर्ष के अप्रैल मई जून तक अधिक गरमी पड़ती है इसी प्रकार से नवंबर दिसंबर जनवरी आदि में अधिक सर्दी बढ़ती है|प्रकृति के इसी समय चक्र से समाज सुपरिचित है यही हमेंशा से चला आ रहा है इसी समय क्रम को स्थायी मानकर इसी के आधार पर चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि सन 2020 के अप्रैल मई जून आदि में अधिक गरमी पड़ेगी और अधिक तापमान में वायरस कमजोर पड़ जाता है इसलिए सन 2020 के अप्रैल मई जून आदि में कोरोना संक्रमण समाप्त जाएगा किंतु ऐसा हुआ नहीं मई तक तो वर्षा और बर्फबारी ही होते देखी सुनी जाती रही इसलिए तापमान उतना अधिक बढ़ा ही नहीं जितने बढ़ने पर कोरोना संक्रमण समाप्त होने की संभावना थी |
इसी प्रकार से नवंबर दिसंबर जनवरी आदि में अधिक सर्दी पड़ती है|समय जनित मौसम के इसी स्वभाव से समाज सुपरिचित भी है और यही हमेंशा से चला भी आ रहा है इसे ही सच मानकर वैज्ञानिकों ने कह दिया कि 2020 की सर्दी अर्थात नवंबर दिसंबर आदि में कोरोना संक्रमण काफी अधिक बढ़ जाएगा !दिल्ली के बिषय में अनुमान लगाया गया कि 15 हजार बिस्तरों की आवश्यकता पड़ सकती है |उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि इस वर्ष की सर्दियों में जनवरी फरवरी से ही तापमान बढ़ना प्रारंभ हो जाएगा जिससे सर्दियों के समय में भी सर्दी कम पड़ेगी |
ऐसी परिस्थिति में चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा गरमी की ऋतु में कोरोना संक्रमण घटने एवं सर्दी के समय में कोरोना संक्रमण बढ़ने के बिषय में लगाया गया पूर्वानुमान संपूर्ण रूप से गलत निकल गया | वस्तुतः चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए इस पूर्वानुमान का आधार तो मौसम था मौसम का पूर्वानुमान उन्हें पता नहीं था इसलिए चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए पूर्वानुमान के गलत निकल जाने का एक कारण यह भी हो सकता है | इसलिए बिना किसी सार्थक अनुसंधान के यह मान लेना उचित नहीं होगा कि सर्दी में कोरोना बढ़ा नहीं और गर्मी में कम नहीं हुआ | इसका मतलब मौसम का महामारी से कोई संबंध ही नहीं है |ऐसा निश्चय किया जाना तब संभव था जब हर वर्ष की तरह ही सर्दी के समय सर्दी पड़ी होती और गर्मी के समय गर्मी पड़ी होती | ऐसे समय यदि मौसम संबंधी अनुसंधानों का सही सहयोग मिला होता तो महामारी को समझने में और अधिक सुविधा हो सकती थी |
वर्तमान मौसम वैज्ञानिक इस परिस्थिति में चिकित्सा वैज्ञानिकों का सहयोग करने में कितने सक्षम थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2019\20 की सर्दियों में कम सर्दी होने का पूर्वानुमान लगाया था जबकि 2020\21की सर्दियों में अधिक सर्दी होने का पूर्वानुमान लगाया था ,किंतु उनके द्वारा लगाए गए ये दोनों पूर्वानुमान ही न केवल गलत निकल गए अपितु अनुमानों के विरुद्ध घटनाएँ घटित होते देखी जाती रहीं | जिस वर्ष सर्दी कम होने का पूर्वानुमान लगाया गया उस वर्ष सर्दी इतनी अधिक हुई कि दशकों के रिकार्ड टूटे और जिस वर्ष सर्दी अधिक होने का पूर्वानुमान लगाया उस वर्ष आधी सर्दी से ही तापमान बढ़ने लग गया ऐसा दशकों बाद हुआ है यह उन्हीं लोगों ने बताया है जिन्होंने अधिक सर्दी होने की भविष्यवाणी की थी |
ऐसी परिस्थिति में जब तक पर्यावरण या मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में कोई सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं होता है तब तक महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने घटने पर मौसम संबंधी घटनाओं का क्या और कितना प्रभाव पड़ता है या नहीं पड़ता है इसका आकलन किया जाना संभव नहीं है |
जीव जंतुओं में -
पशु पक्षियों समेत समस्त जंतु वैज्ञानिकों में पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों को समझने की अद्भुत क्षमता होती है भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में पशु पक्षियों को बहुत जल्दी आहट हो जाती है | इसीलिए भूकंप जैसी बड़ी घटनाओं के घटित होने संबंधी अनुसंधानों के लिए पशु पक्षियों के व्यवहार एवं स्वभाव में आने वाले परिवर्तनों को भी सम्मिलित किया जाता है |वर्षा आँधी तूफान जैसी घटनाओं से संबंधित अनुमान पूर्वानुमान लगाने में भी जीव जंतुओं की चेष्टाओं का भी उपयोग किया जाता रहा है | प्राचीन काल में प्राकृतिक वातावरण से लेकर मनुष्य जीवन तक से संबंधित घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए जीव जंतुओं की चेष्टाओं का अध्ययन किया जाता रहा है |
पशुओं पक्षियों में कोरोना
20 Apr 2020-अमेरिका में एक बाघ में कोरोना पाया गया. वहीं कई जगहों में कुत्तों में भी कोरोना के निशान मिले. अब फ्रांस की राजधानी पेरिस में पानी में कोविड -19 (COVID-19) पाया गया है.|
05 May 2020-राष्ट्रपति ने कहा-टेस्ट किट सही नहींकोरोना वायरस के ये सैंपल बकरी भेड़ से लिए गए थे। सैंपल को जांच के लिए तंजानिया की लैब में भेजा गया, जहां बकरी कोरोना पॉजिटिव निकले।
13Aug2020-चीन से आई चौंकाने वाली खबर, चिकन में भी कोरोना वायरस!चीन ने फ्रोजन चिकनके पंख में भी कोविड-19 के होने की पुष्टि की है.
उत्तर-पूर्वी स्पेन के एक फ़ार्म में कई ऊदबिलाव कोरोना वायरस संक्रमित पाए गए हैं जिसके बाद यह फ़ैसला किया गया है
ऐसी परिस्थिति में भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जो विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली (Early Health Warning System) विकसित की जा रही है, जिससे देश में किसी भी रोग के प्रकोप की संभावना का अनुमान लगाया जा सकेगा।भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) भी इस विशिष्ट प्रणाली की अध्ययन और अनुसंधान प्रक्रिया में शामिल किया गया है।यह भी उचित दिशा में अच्छी नियत से उठाया कदम माना जा सकता है किंतु प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली जैसे बड़े संकल्प को पूरा करने के लिए इस प्रक्रिया में भारतमौसमविज्ञानविभाग को केवल सम्मिलित कर लेना ही पर्याप्त नहीं होगा अपितु उनमें से उन लोगों को ही सम्मिलित करना उचित होगा जिन मौसम वैज्ञानिकों को मौसम के बिषय में कुछ समझ भी हो |जिनके द्वारा पहले की गई मौसम संबंधी कुछ भविष्यवाणियाँ सही एवं सटीक घटित हो चुकी हों |
जुगाड़ और वैज्ञानिक अनुसंधानों में अंतर होता है !
जुगाड़ तो केवल जुगाड़ ही होता है ये विज्ञान नहीं हो सकता है | जिसमें दीर्घकालीन अनुसंधान भावना न होकर प्राप्त परिस्थिति में जिस किसी प्रकार से काम चला लेना जुगाड़ होता है जो किसी वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित न होने के कारण उभयपक्षी होता है | उसमें सही गलत हानि लाभ दोनों होने की संभावना होती है | काम बनेगा तो बनेगा अन्यथा बिगड़ तो रहा ही है | इस भावना से किसी विषय में जुगाड़ पद्धति अपनाई जाती है | जुगाड़ प्रक्रिया किसी सिद्धांत से न बँधी होने के कारण ये सही गलत दोनों ही होती है | एक ही प्रक्रिया एक बार सही तो दूसरी बार गलत हो जाती है | मौसम हो या महामारी जुगाड़ विज्ञान दोनों ही जगह काम नहीं आया है |
उदाहरण -किसी जंगल में हाथी बहुत रहा करते थे वे आस पास के गाँवों में कभी कभी उपद्रव मचा आया करते थे | जिससे काफी नुक्सान हो जाया करता था | इससे बचाव के लिए हैरान परेशान होकर गाँव वालों ने अपने गाँव में पहरा देना शुरू कर दिया किंतु कब तक ऐसा करते कोई अवधि तो थी नहीं |
परेशान होकर गाँव वालों ने गाँव के बाहर जंगल की ओर मुख करके कुछ कैमरे लगा दिए फिर जब हाथियों का झुंड गाँव की ओर आते दिखाई पड़ता था तो गाँव वाले इकट्ठे होकर हाथियों को जंगल में ही खदेड़ आते थे जिससे गाँव वालों का नुक्सान होने से कभी कभी बच जाया करता था| कभी बचाव होने और कभी न होने का कारण यह था कि गाँव वालों ने अपने अपने गाँवों में कैमरे केवल जंगल की तरफ लगवा रखे थे उधर से ही हाथियों के आने की अधिक संभावना रहती थी|इसलिए जब उधर से आते थे तब तो हाथियों का झुंड दिखाई पड़ जाता था उन्हें खदेड़ कर अपना बचाव कर लिया जाता था |यह एक जुगाड़ मात्र है इसे हाथीविज्ञान नहीं कहा जा सकता है |कभी कभी हाथियों का झुंड जगल की ओर से प्रवेश न करके किसी दूसरी ओर से गाँव में घुस कर उपद्रव मचा दिया करता था जिससे काफी नुक्सान हो जाया करता था |ऐसे समय में यह जुगाड़ निष्फल हो जाया करता था |
इसी प्रकार से मौसम विज्ञान है जो उपग्रहों रडारों के आधीन है जो उससे दिखाई देता है वो पता हो जाता है |बादल आँधी तूफ़ान आदि तो दिखाई दे जाते हैं तो उनके विषय में कुछ सही गलत अंदाजा लगा भी लिया जाता है किंतु भूकंप बज्रपात जैसी घटनाएँ उनसे नहीं देखी जा सकती हैं इसलिए उनके विषय में कुछ भी कहना संभव नहीं हो पा रहा है |वस्तुतः मौसम विज्ञान के नाम से जिसे जाना जाता है वह मौसमसंबंधी घटनाओं के विषय में अंदाजा लगाने का एक जुगाड़ मात्र है यह विज्ञान नहीं है | यदि यह वैज्ञानिक पद्धति होती तब तो मौसम संबंधी पूर्वानुमान लगाने की वह पद्धति खोजी जाती जिससे इस बात का पूर्वानुमान लगाया जाता कि वर्षा किस दिन कैसी होगी !किस महीने कैसी होगी और किस वर्ष कैसी होगी | ये पूर्वानुमान कहे जाते किंतु किसी एक स्थान पर घटित होती घटनाओं को देखकर उनके दूसरे स्थान पर पहुँचने के विषय में अंदाजा लगा लेने में न कोई विज्ञान है और न ही पूर्वानुमान है |
इसमें यदि वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई जाती तो मौसम के आधारभूत वे कारण खोजे जाते जिनसे मौसम संबंधी घटनाएँ न सिर्फ पैदा होती हैं अपितु प्रभावित भी होती हैं उन्हें खोजकर लगाए जाने वाले मौसम संबंधी अनुमान पूर्वानुमान आदि सही होते देखे जाते हैं |
इसी प्रकार से हाथियों के स्वभाव का अध्ययन किया जाता उसके अनुशार यह पता लगाने का प्रयत्न किया जाता कि हाथी अपनी किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए गाँव की ओर आते हैं !आते भी हैं तो ऐसा उपद्रव क्यों करते हैं इससे उन्हें क्या मिलता है | यदि वे सुविधाएँ उन्हें जंगल में ही मिलने लगें तो संभव है कि हाथी जंगलों से निकलें ही नहीं और न किसी गाँव में घुसें और न ही उनका नुक्सान करें |
हाथी जंगलों से बाहर निकलते क्यों हैं ?
इसमें वैज्ञानिक अनुसंधान तो यह जानने के लिए करना होगा कि हाथी जंगलों से निकलते कब हैं ? दूसरी बात हाथी जंगलों से बाहर निकलते क्यों हैं ?तीसरी बात हाथियों का झुंड जंगलों से निकलकर योजनाबद्ध ढंग से सीधे गाँव की ओर ही क्यों आता है | इन बातों को ठीक ढंग से समझने के लिए हाथियों के स्वभाव का अध्ययन करना होगा | तभी यह पता लग पाएगा कि जंगलों में जब हाथियों के खाने के लिए चारा और पीने के लिए पानी नहीं बचता है तब वे जंगलों से निकलकर गाँवों की ओर जाने का रुख करते हैं ?ऐसा पता लगा करके जंगलों में ही चारा पानी को पर्याप्त बनाए रखने का प्रयत्न करना होगा तो हाथी जंगलों में ही संतुष्ट बने रहेंगे न जंगलों से बाहर निकलेंगे और न ही गाँव की ओर आएँगे |
ऐसे अनुसंधानों को यदि और अधिक गंभीर बनाना है तो यह पता लगाना पड़ेगा कि जंगलों में हाथियों के खाने पीने की कमी वर्ष के किन किन महीनों में होने की संभावना रहती है | अनुसंधान पूर्वक यह पता लगाया गया कि ग्रीष्म ऋतु में जब तालाब सूख जाते हैं नदियों में पानी बहुत कम हो जाता है उस समय पेड़ पौधे झुलसने लग जाते हैं तब हाथियों को भोजन और पानी दोनों की समस्या हो जाती है | ऐसे समय में हाथियों जंगलों से बाहर निकलने की संभावना अधिक रहती है|उसमें भी जिस दिन तापमान जितना अधिक होगा उस दिन व्याकुलता भी उतनी अधिक होगी |उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा हाथियों के जंगलों से बाहर निकलने की संभावना विशेष अधिक रहती है |इन सभी बिंदुओं पर अध्ययन पूर्वक हाथियों के जंगलों से बाहर निकलने के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |
इसमें भी यदि पता लग जाए कि सबसे अधिक गर्मी होने की संभावना तब होती है जबतक सूर्य मृगशिरा नक्षत्र में रहता है | प्रतिवर्ष कब से कब तक सूर्य मृगशिरा नक्षत्र में रहता है | खगोलीय गणित विज्ञान के द्वारा इसकी गणना करके वर्षों पहले इस बात का पूर्वानुमान लगा लिया जाता है इसी के आधार पर वर्षों पहले इस बात का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि किस वर्ष के किस महीने के किन किन दिनों में हाथियों के जंगलों से बाहर निकलने की संभावना अधिक रहेगी |
किसी किसी वर्ष ही वर्षा ठीक होती है तो कुछ वर्षों में बहुत अधिक और कुछ वर्षों में वर्षा बहुत कम होकर बिल्कुल सूखा जैसे हालात बन जाते हैं | जिन वर्षों में वर्षा ठीक होती है उन वर्षों में तो आवश्यकता के अनुरूप चारा पानी जंगलों में बना रहता है किंतु वर्षा का संतुलन बिगड़ते ही चारा पानी का भी संतुलन बिगड़ जाता है | ऐसी परिस्थिति में किस वर्ष कैसी वर्षा होगी इसका सही सही पूर्वानुमान पता लगना आवश्यक हो जाता है |
जिस प्रकार से यह पद्धति हाथियों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए वैज्ञानिक होगी उसी प्रकार से वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा लगाए जाने वाले मौसम संबंधी पूर्वानुमान सही एवं सटीक होते देखे जाते हैं |महामारी संबंधी अनुसंधानों के लिए भी इसी प्रकार की वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति अपनाई जानी चाहिए |________________________________________________________________
भूकंप वैज्ञानिक :ऐसे अनुसंधानों में भूकंप वैज्ञानिकों की भी सेवाएँ ली जानी चाहिए क्योंकि 2019 और 2020 में भूकंप भी बहुत संख्या में आए हैं सामान्य तौर पर ऐसा हर वर्ष होते तो नहीं देखा जाता है | इस वर्ष इतने अधिक भूकंप आने का कोई संबंध भूकंप जैसी महामारी से तो नहीं है | आखिर प्रकृति में किस प्रकार के बदलाव आने से भूकंप बनते हैं और किस प्रकार के बदलाव आने से महामारियाँ बनती हैं क्या इन दोनों का आपस में कोई संबंध है उसका भी पता लगाया जाना चाहिए !
महामारियाँ भूकंप अतिवर्षा बाढ़ सूखा हिंसक तूफान जितनी भी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती हैं उन सबके लिए जनता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है किसी में प्रत्यक्ष तौर से तो किसी में परोक्ष तौर से महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं का मुख जनता की ओर ही मोड़ दिया जाता है | कहा जाता है कि जनता पर्यावरण के विरुद्ध आचरण करती है| जिससे जलवायु परिवर्तन होता है| जलवायुपरिवर्तन के कारण महामारियाँ भूकंप अतिवर्षा बाढ़ सूखा हिंसक तूफान जैसी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं का घटित होना बताया जाता है|इसीलिए ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पा रहा है |कुल मिलाकर विभिन्न वैज्ञानिकों ने जलवायुपरिवर्तन को मनुष्यकृत माना है |
2018 के अक्टूबर महीने में जलवायु परिवर्तन का मूल्यांकन करने वाली प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संस्था 'इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) द्वारा जारी एक रिपोर्टने कहा - "जलवायु परिवर्तन को तभी रोका जा सकता है जब दुनिया बड़ी और महंगी हो जाए !
महामारियाँ :
इसीप्रकार से कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि महामारी से संबंधित संक्रमण बढ़ने घटने में तापमान के बढ़ने घटने की बड़ी भूमिका है और जलवायुपरिवर्तन एवं ग्लोबलवार्मिंग जैसी घटनाएँ मनुष्यकृत मान ली गई हैं दुनिया के प्रमुख वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव-प्रेरित है और चेतावनी देता है कि मानव गतिविधि द्वारा तापमान में प्राकृतिक उतार-चढ़ाव बढ़ रहा है।इसलिए तापमान का बढ़ना घटना भी मनुष्यकृत मान लिया गया है |
11 जून, 2020 को 'फिजिक्स ऑफ फ्लूड्स' जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में यह आकलन किया गया शुष्क मौसम की तुलना में आर्द्र मौसम में वायरस के सक्रिय रहने की संभावना मौटे तौर पर पांच गुणा बढ़ जाती है |
प्राकृतिक घटनाओं के लिए जनता कितनी दोषी है ?
पिछले कुछ दशकों से किसी भी प्राकृतिक आपदा के घटित होने पर उसका वास्तविक कारण वैज्ञानिक अनुसंधानों से खोजे बिना ही उसके लिए जनता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है |जनता वैसा न करती तो ऐसा न होता |वैसा करना जनता की अपनी रोजी रोजगार आदि मजबूरी होती है इसलिए उसे वैसा करने के लिए विवश होना पड़ता है |
अनुसंधानों के क्षेत्र में यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जनता को कुछ पता ही नहीं है हम वैज्ञानिक हैं इसलिए हम जो कुछ कह देंगे जनता कुछ सोचे बिचारे बिना ही उसी पर विश्वास कर लेगी !सच्चाई ये है कि अपनी सीमा जनता भी बिचार करती है जनता के पास भी अपने तर्क होते हैं जनता भी अपने अनुसंधानों को परखना जानती है | |
मीडिया प्रायः वही बोलता है जो सरकारें बोलवाना चाहती हैं और सरकारें वही बोलती हैं जो अनुसंधानकर्ता बोलवाना चाहते हैं किंतु किसी भी प्राकृतिक बिषय में अनुसंधानकर्ता जो बोलते हैं वो कितना विज्ञानसम्मत है कितना तर्कसंगत है इस पर भी बिचार करने के लिए कोई निष्पक्ष मंच होना चाहिए जहाँ जनता भी अपनी मजबूरियाँ बता सके उन बिषयों में अपनी शंकाओं का समाधान करवा सके |
ऐसी परिस्थिति में सरकार अपनी सक्रियता दिखाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं की बातों पर विश्वास करके जनता को वैसा करने से रोकने लगती है फिरभी जो वैसा करते रहते हैं | उन्हें सरकारें इतने आत्मविश्वास के साथ दंडित करने लगती हैं उन पर जुर्माना लगाती हैं जैसे उस प्राकृतिक आपदा के लिए जनता ही दोषी हो | सरकारों की सक्रियता देखकर ऐसा लगने लगता है कि जनता यदि वैसा करना बंद कर देगी तो सब कुछ ठीक हो ही जाएगा |
ऐसी परिस्थिति में जिन अनुसंधानों के लिए जनता धन दिया करती है प्राकृतिक आपदा या महामारी के समय उन अनुसंधानों की सहयोगी भूमिका तो कुछ दिखाई नहीं पड़ती है अपितु वही अनुसंधानकर्ता अपनी सक्रियता दिखाने के लिए उस मुसीबत के समय में जनता के कामों में निरर्थक रोड़े अटकाते देखे जाते हैं जिसका दंड तो जनता भोगती है किंतु उसकी सच्चाई कभी प्रमाणित ही नहीं हो पाती है |
वायुप्रदूषण बढ़ने के लिए जब जो कारण बताए जाते हैं उनके समाप्त होने के बाद भी प्रदूषण बढ़ता रहता है तो दूसरे कारण बता दिए जाते हैं ऐसे ही तीसरे चौथे पाँचवें छठे आदि कारण बताए जाते रहते हैं एक बीत जाता है तो दूसरा बता दिया जाता है | वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए दीपावली के पटाखों को जिम्मेदार बताया जाता है | इस तर्क के अनुसार तो दीपावली बीत जाने के बाद वायुप्रदूषण समाप्त हो जाना चाहिए यदि समाप्त हो गया तब तो ठीक अन्यथा यदि फिर भी बढ़ता रहा तो पराली जलाने को कारण बता दिया जाता है | पराली का समय बीत जाने के बाद भी वायु प्रदूषण यदि बढ़ता रहा तो सर्दी में एयरलॉक को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है ऐसे ही समय पास करने के लिए और भी बहुत कुछ कहा सुना जाता है सरकारें अनुसंधानकर्ताओं की उन्हीं आज्ञाओं का पालन करती और जनता को दंडित करती रहती हैं |
इसी प्रकार से डेंगू होता है तो साफ पानी वाले मच्छरों को कारण बता दिया जाता है |अब सरकारें मच्छरों को खोजने के चक्कर में गमलों ,कूलरों आदि में जिसके यहाँ पानी भरा मिल जाता है उसका चालान करवाने लग जाती हैं | जनता एक ओर डेंगू से दूसरी ओर सरकारी जुर्माने से जूझती है |
तर्क से देखा जाए तो डेंगू यदि गमलों ,कूलरों आदि के पानी वाले मच्छरों से ही होता है तब तो उसे समाप्त भी तभी होना चाहिए जब गमलों ,कूलरों आदि के साफ पानी वाले मच्छरों से वातावरण को बिल्कुल मुक्त किया जा चुका हो किंतु ऐसा होते तो नहीं देखा जाता है |
कोरोनामहामारी के समय में भी ऐसा ही होते देखा जाता रहा !मास्क पहनना,दो गजदूरी और लॉकडाउन आदि जितने भी उपाय वैज्ञानिकों के द्वारा कोरोना संक्रमण से बचने के लिए बताए गए उनका जिन लोगों या जिन देशों ने जिस समय पर पालन किया वे भी संक्रमित होते देखे गए और जिन्होंने ऐसी सावधानियों को बिल्कुल नहीं अपनाया और खुले भीड़भाड़ में घूमते रहे उन्हें भी संक्रमण नहीं हुआ या उनमें से जिन्हें हुआ उन्हें भी बिना किसी चिकित्सा के भी संक्रमण मुक्त होते देखा गया | जिन्होंने वैक्सीन लगवाई उनमें से भी बहुतों को करना संक्रमित होते देखा गया !जिन्होंने वैक्सीन नहीं लगवाई उनमें से भी बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्हें संक्रमित होते ही नहीं देखा गया |
वैज्ञानिक तर्क की दृष्टि से यदि देखा जाए तो जिन्होंने मास्क पहनना,दो गजदूरी और लॉकडाउन आदि सावधानियाँ नहीं बरतीं वैक्सीन नहीं लगवाई उन्हें ही संक्रमित होना चाहिए था जिन्होंने वैज्ञानिकों की सलाहें नहीं मानीं या वैक्सीन नहीं ली उन्हें संक्रमित होना चाहिए था किंतु संक्रमित होने और न होने में ऐसे उपायों या वैक्सीन आदि का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव प्रमाणित नहीं हो सका !
इस बिषय में वैज्ञानिकों और सरकारों की भूमिका के बिषय में बनारस के एक विद्वान एक कहानी सुनाया करते थे कि एक व्यक्ति ने एक प्रेत सिद्ध किया तो प्रेत प्रकट हुआ उसने कहा वरदान माँग लो तो उस प्रेत से कहा तुम हमारे बश में हो जाओ मैं जो जो कुछ कहूँ तुम वही करते रहो !प्रेत ने उससे कहा ऐसा ही होगा किंतु एक शर्त मेरी भी है मैं कभी खाली नहीं बैठूँगा खाली होते ही तुम्हें ख़त्म कर दूँगा !उस व्यक्ति ने कहा ठीक है शर्त स्वीकार करके उसने अपने दरवाजे पर एक बाँस गाड़ दिया और प्रेत से कहने लगा कि जब तुम खाली होना तो इसी पर चढ़ते उतरते रहना !प्रेत ने कहा ठीक है इस प्रकार से जबतक कोई काम रहे तब तक प्रेत वह काम करता रहे खाली समय में उस बाँस पर चढ़ने उतरने लगे |
विज्ञान जगत के लोग सरकारों को भी इसी प्रकार से बशीभूत करके अपनी अँगुलियों पर नचाते रहते हैं | मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाते रहते हैं | डेंगू आने पर मच्छर मारने का काम पकड़ा देते हैं | महामारी आती है तो जनता को मास्क पहनाने ,दो गज दूरी बनाने और लॉकडाउन लगाने या वैक्सीन लगाने आदि में उलझा दिया करते हैं | प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं तो जलवायु परिवर्तन को कारण बता कर उसे रोकने में लगा दिया करते हैं |वायु प्रदूषण बढ़े तो उसके लिए जनता को जिम्मेदार ठहरा देते हैं | मौसम पूर्वानुमान सही न निकले तो उपग्रहों रडारों आदि की संख्या बढ़ाने में उलझा दिया करते हैं|
कुल मिलाकर प्राकृतिक आपदाएँ हों या कोरोना जैसी महामारियाँ अपने आप आती और अपने आपसे ही जाती हैं इनमें मनुष्यकृत चिकित्सकीय प्रयासों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ते नहीं देखा जाता है |जब आधुनिक विज्ञान का जन्म नहीं हुआ था तब भी यही होता था और अभी भी वही हो रहा है | उस समय राजतंत्र होने के कारण राजा को दिखावटी कुछ करने की मजबूरी नहीं हुआ करती थी जबकि अब लोकतंत्र है अब सरकारें इतनी स्वतंत्र नहीं होती हैं इसलिए प्राकृतिक आपदाएँ हों या कोरोना जैसी महामारियाँ सरकारों को अपनी सक्रियता दिखाने के लिए कोई बाँस तो चढ़ने उतरने के लिए चाहिए ही होता है वह भले निरर्थक ही क्यों न हो | ऐसा करते रहने से कोई यह तो नहीं कहता है कि सरकार हाथ पे हाथ रखे बैठी रही | इसलिए सरकारों में सम्मिलित लोगों को उतने समय तक उछलकूद करते रहना पड़ता है | अभी तक तो प्राकृतिक आपदाओं और कोरोना जैसी महामारियों से निपटने में हमारी रिसर्च के अनुसार विज्ञान की केवल इतनी ही भूमिका है |
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कहने को तो वैज्ञानिक अनुसंधान हमेंशा चला करते हैं भले ही उनसे कुछ निकले या न निकले यह दूसरी बात है किंतु उन अनुसंधानों में वैज्ञानिक लोग लगे हमेंशा रहते हैं करते क्या हैं ये नहीं पता है | सरकारें उन अनुसंधानों पर बहुत धन खर्च किया करती हैं किंतु उससे सरकारों को मिलता क्या है या ऐसा करने के पीछे सरकारों की अपनी मजबूरी क्या है ये नहीं पता है ऐसा करने से जनता को भले ही कुछ लाभ न होता हो किंतु सरकारों को क्या लाभ होता है ये किसी को नहीं पता है इससे कारों के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाया करती हैं किंतु उनसे निकलता क्या है |
महामारीकाल में वैज्ञानिकअनुसंधान भी अपनी भूमिका कुछ तो सिद्ध कर सकें महामारी के बिषय में अनुसंधान होने का मतलब ही है कि महामारियों से जूझती जनता को वैज्ञानिक अनुसंधानों से कुछ तो मदद पहुँचाई जा सके !
सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान भूकंप जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं से अक्सर जनधन की भारी हानि होते देखी जाती है उस संभावित हानि से जनता को कैसे बचाया जाए ये सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और जनता की इस आवश्यक आवश्यकता को ही केंद्रित करके ऐसे सार्थक अनुसंधान करने या करवाए जाने की आवश्यकता है जिससे जनता की आवश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति को किसी सीमा तक तो सुरक्षित किया जा सके !ये आवश्यक भी है और सरकार का कर्तव्य भी है | ऐसे अनुसंधानों पर खर्च करने के लिए जो धनराशि टैक्स रूप में सरकारें जनता से लेती है उस जनता के प्रति सरकारों की इतनी जवाबदेही तो बनती है -
अनुसंधानों का क्षेत्र ही ऐसा है जिसमें लक्ष्य का साधन करने के लिए सही और गलत का बिचार किए बिना वैज्ञानिकों को सभी प्रकार की कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं | इसके बाद ही अनुसंधान जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे सच्चाई सामने आती जाती है और सभी निरर्थक कल्पनाएँ दुविधाएँ स्वयं ही छूटती चली जाती हैं | इसी क्रम में धीरे धीरे वह एक ही सच बचता है जो उस वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त किया गया निश्चित वैज्ञानिक उत्तर होता है | ऐसी जानकारी के गलत होने की संभावना बहुत कम रहती है इस प्रकार का निश्चय हो जाने पर ही अनुसंधान से प्राप्त ऐसी जानकारी जनता तक पहुँचाई जानी चाहिए | जनता उसके अनुशार अपनी कार्य योजना बनाती है तभी जनता उसका लाभ उठा पाती है | इसलिए वैज्ञानिक प्रक्रिया के आधार पर जो भी उत्तर खोजै जा सका हो उसका परीक्षण संबंधित घटनाओं के साथ अवश्य किया जाना चाहिए क्योंकि जनता को वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया के बिषय में तो कुछ पता होता नहीं है किंतु घटनाओं से तो उसे ही जूझना पड़ता है इसलिए अनुसंधान से प्राप्त जानकारी के साथ घटनाओं के संबंध को अवश्य सिद्ध किया जाना चाहिए |हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि मानसून आने और जाने की तारीखों के बिषय में लगाया गया पूर्वानुमान भविष्य में सही घटित भी होना चाहिए |
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यही स्थिति आधुनिक विज्ञान की है
पूर्वानुमान नहीं लगाया जाता है | उसी शास्त्रीय विज्ञान के आधार पर संस्कृत विश्व विद्यालयों में विषयों में को संस्कृत विश्व विद्यालयों में पढ़ाया तो जाता है किंतु उसे जिसमें यह तो
जिस प्राचीन विज्ञान में महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा, वायुप्रदूषण,भूकंप आदि विषयों में कोई वैज्ञानिक उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं | यदि ऐसा होना संभव होता तो ऐसी घटनाओं से संबंधित अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने की दृष्टि से उनके द्वारा कुछ किया जाता |वस्तुतः शास्त्रीय दृष्टि से ऐसे विषयों पर या तो अनुसंधान नहीं किए जा रहे हैं या फिर जो अनुसंधान हो भी रहे हैं वे इस उद्देश्य से नहीं किए जा रहे हैं या फिर उनके द्वारा ऐसा किया जाना संभव नहीं होगा | निजी तौर पर जो ऐसे अनुसंधान कर भी रहा है उन्हें वैज्ञानिक क्षेत्रों में तो कोई प्रोत्साहन मिल ही नहीं रहा है प्रत्युत संस्कृत विश्व विद्यालयों से भी उन्हें वो सहयोग नहीं मिल पा रहा है | कई स्थानों पर तो अंधविश्वास बताकर उनका उपहास भी उड़ाया जा रहा है | जो लोग कुछ सहृदय व्यवहार करते हैं वो ये कहते सुने जाते हैं कि ऐसे शास्त्रीय अनुसंधानों से जानकारियाँ तो सही मिलती हैं किंतु ये विषय विज्ञान नहीं हैं इसलिए ऐसे विषयों से संबंधित अनुसंधान को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है |
वर्तमान समय में अक्सर पढ़े लिखे लोगों के मुख से अंधविश्वास जैसे शब्दों को कहते सुनते देखा जाता है | उनके द्वारा प्रयोग किए जाने वाले अंधविश्वास का मतलब ज्योतिष तंत्रमंत्र जादूटोना एवं परंपराओं से प्राप्त पुरातन धर्मकर्म रीतिरिवाज आदि का अनुपालन होता है | नदियों पहाड़ों बृक्षों तालाबों कुओं के पूजन की पवित्र परंपराओं के पालन को अंधविश्वास बता दिया जाता है |
ऐसे ही प्राचीनकाल में अपनाए जाते रहे धर्म कर्म पुरातन परंपराओं सूर्य चंद्र आदि ग्रहणों के फल को वास्तु विज्ञान जैसे विषयों को अंधविश्वास बता बता कर उनका उपहास उड़ाया जाता है | इन सबके पीछे का आधारभूत कारण यह बताया जाता है कि ऐसी बातों का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं दिखाई देता है | प्राचीन परंपराओं को अंध विश्वास मानने का कारण यदि यही है तो ऐसा तो वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी होता है किंतु उन्हें सरकारी स्तर पर प्रोत्साहित किया जा रहा होता है | उस प्रकार का सहयोग यदि शास्त्रीय अनुसंधान को भी मिले तो महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा, वायुप्रदूषण,भूकंप आदि विषयों में अनुसंधानों के परिणाम बहुत सकारात्मक हो सकते हैं |
समस्त वेद वेदांगों का पठन पाठन होता है उसमें योग ज्योतिष मंत्र विज्ञान आदि समस्त शास्त्रीय विषयों को पढ़ाया जाता है | वहाँ योग और ज्योतिष ऐसे विषय हैं जिनके आधार पर प्रकृति और जीवन से संबंधित प्रायः सभी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने की विधि बताई गई है | वह विधि संस्कृत विश्व विद्यालयों में विषय के रूप में पढ़ाई तो जाती है किंतु उसके आधार पर महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा, वायुप्रदूषण,भूकंप आदि घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाता है जबकि इस प्रकार की घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है | एक ओर जो ज्ञान विज्ञान शिक्षकों के द्वारा विद्यार्थियों को पढ़ाया तो जा रहा है किंतु पूर्वानुमान लगाकर नहीं दिखाया जा रहा है जिससे विद्यार्थी पढ़ तो लेते हैं किंतु वे भी उसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर पाते हैं | यदि पठन पाठन से ऊपर उठकर देखा जाए तो कोरोना जैसी महामारी का पूर्वानुमान लगाने की तो उन शिक्षकों की भी जिम्मेदारी थी जो ऐसे विषयों को संस्कृत विश्व विद्यालयों में दशकों से पढ़ाते चले आ रहे हैं आखिर कोरोना महामारी के विषय में कोई सटीक पूर्वानुमान लगाने में वे शिक्षक क्यों असफल रहे जो इन्हीं विषयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दशकों से सँभाले चले आ रहे हैं |
यही स्थिति मंत्रविज्ञान के क्षेत्र में है जिन शास्त्रों में अति वृष्टि अनावृष्टि बज्रपात चक्रवात आदि प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति दिलाने के लिए यज्ञ आदि बड़े बड़े प्रयोग बताए गए हैं | शास्त्र की मान्यता है कि उन यज्ञों के द्वारा समस्त प्राकृतिक आपदाओं को टाला जा सकता है महामारियों से मुक्ति दिलाई जा सकती है | इसप्रकार का मंत्र विज्ञान एवं उनके प्रयोग विषय के रूप में संस्कृत विश्व विद्यालयों में जो शिक्षक दशकों से पढ़ाते चले आ रहे हैं वही शिक्षक समाज को कोरोना जैसी महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए ऐसा कोई प्रयोग स्वयं क्यों नहीं कर पाए जिससे महामारी के वेग को रोकना कुछ तो संभव होता |
इस प्रकार से जो नष्ट हुए वो तो समाप्त ही हो गए और जो जहाँ उठा ले जाए गए वहाँ उन्हें समझने वाले विद्वान नहीं थे इसलिए उनका वहाँ सदुपयोग नहीं हो सका !जहाँ उन विषयों को समझने वाले लोग थे उन्हें उस प्रकार के ग्रंथ नहीं मिल सके !जो ऐसा कर पाने में सक्षम थे |
आक्रांताओं के उपद्रवों के बाद जो शास्त्रीय वैज्ञानिक ग्रंथ बच भी गए वे या तो खंडित थे या फिर उस दारुण परतंत्रता काल में उनका छिप छिप के पठन पाठन करना पड़ा ! इस लिए सुयोग्य विद्वानों तक उनकी पहुँच नहीं बन सकी इसलिए उन ग्रंथों का उस प्रकार से सदुपयोग नहीं हो सका जैसा कि होना चाहिए था | वैसे अनुसंधान नहीं किए जा सके जैसी कि आवश्यकता थी |
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसे विषयों को संरक्षित करने एवं उन के विषय में अनुसंधान किए जाने की विशेष आवश्यकता थी !इनसे संबंधित अनुसंधानों को आत्मीयता पूर्वक प्रोत्साहित करने की विशेष आवश्यकता थी ! सरकारी स्तर पर ऐसे अनुसंधानों के संबर्द्धन की विशेष आवश्यकता थी किंतु ऐसा कुछ विशेष किया नहीं जा सका !
वर्तमान समय में ऐसे विषय जिन विश्व विद्यालयों में पढ़ाए भी जा रहे हैं वहाँ केवल पाठ्यक्रम को पढ़ाया जा रहा है उसी से संबंधित प्रश्नपत्र बन रहे हैं परीक्षाएँ हो रही हैं उसी के अनुशार अनुसंधान हो रहे हैं |उन्हीं अनुसंधानों के आधार लोग पीएचडी आदि करके उन्हीं विश्व विद्यालयों में शिक्षक बन जाते हैं | जो उन्होंने पढ़ा था वही वे पढ़ने लगते हैं | इस प्रकार के अध्ययन अध्यापन की परंपरा का निर्वाह होना आवश्यक है किंतु ऐसे अध्ययनों अनुसंधानों वास्तविकता लाना तभी संभव है जब प्राचीन अनुसंधानों में भी सजीवता भरी जा सके| इसके लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है |
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