वातादि दोष !

                              वात, पित्त, और कफ़ का परिचय एवं प्रभाव (संतुलित) 

                                         त्रिदोषों  के असंतुलन की प्रक्रिया और  प्रभाव ! 

    शिशिर (सर्दी) ग्रीष्म (गर्मी) वर्षा आदि प्रमुख ऋतुओं का प्रभाव कभी ऋतुओं के अपने समय से प्रारंभ होकर और निर्धारित समय सीमा तक रहता है|कभी ऋतुओं की निर्धारित अवधि से अधिक समय तक तो कभी कम समय तक रहता है | ऐसे ही ऋतुओं के प्रभाव का वेग कभी उचित अनुपात में रहता है तो कभी प्रभाव का वेग बहुत अधिक या बहुत कम रहता है |किसी एक ऋतु का प्रभाव  बहुत अधिक बढ़ जाता है,या उसका समय काफी लंबा खिंच जाता है |किसी किसी वर्ष ऋतुप्रभाव कम समय तक रहता है अर्थात नवंबर दिसंबर तक सर्दी पड़नी शुरू ही नहीं होती है या फिर जनवरी फरवरी से ही सर्दी कम होने लग जाती है |इस प्रकार से कम समय में ही ऋतुओं का प्रभाव समाप्त होने लग जाता है |
     इसीप्रकार से सर्दी होने का समय और प्रभाव यदि  बढ़ जाता है तो गर्मी होने का समय और प्रभाव कम हो जाता है |गर्मी यदि कम पड़ेगी तो वर्षा कम होगी | इस प्रकार से किसी एक ऋतु के असंतुलित होने पर कुछ दूसरी ऋतुएँ  भी प्रभावित होने  लग जाती हैं |इससे उनका प्रभाव भी असंतुलित होते चला जाता है | जिसमें साँस लेने से मनुष्य शरीर रोगी होने लगते हैं |  
    कई बार कोई एक ऋतु कुछ दूसरी ऋतुओं के प्रभाव से प्रभावित हो जाती है | सन 2020 और 2021 में अप्रैल मई महीने तक वर्षा हुई थी | 
    इसीप्रकार से जिस वर्ष सर्दी कम या अधिक पड़ती है |उस वर्ष सर्दी अर्थात कफ की कमी या अधिकता का प्रभाव प्राकृतिक वातावरण पर पड़ता है | जिससे प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं रह जाता है | इसमें साँस लेने से मनुष्य शरीर रोगी होने लगते हैं |
    कभी कभी ऋतुओं की अवधि का समय कम हो जाता है किंतु उस कम समय में ही ऋतुओं के प्रभाव का वेग बहुत अधिक होता है |कई बार ऋतुओं का समय अधिक होता है किंतु उनका वेग बहुत कम होता है | कई बार ऋतुओं का प्रभाव भी कम होता है और अवधि भी कम रहती है | ऐसे ही कई बार दोनों अधिक होते देखे जाते हैं | कई बार किसी एक ऋतु में दूसरी ऋतु की घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं |कई बार सर्दी के समय में वर्षा होने लगती है और कई बार गर्मी के  समय में वर्षा होते देखी जाती है |ऐसी अवस्था को ऋतुध्वंस कहा जाता है |ऐसे समय तरह तरह के रोग महारोग(महामारियाँ ) एवं प्राकृतिक आपदाएँ आदि पैदा होते देखी जाती हैं |
       इसमें विशेष बात यह है कि मनुष्यों समेत समस्त प्राणियों को उनकी प्रकृति के अनुसार वात पित्त आदि धातुओं के संतुलित प्रभाव को सहने का अभ्यास होता है | उससे कम या अधिक होने पर वे बेचैन होने लगते हैं|यही कारण है कि भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएँ  जहाँ  जब घटित होनी होती हैं | उससे पहले वहाँ त्रिदोष असंतुलित हो चुके होते हैं |इसी से उन घटनाओं का निर्माण हुआ होता है | 
     वात पित्त आदि धातुओं के इसी असंतुलन को न सह पाने के कारण वहाँ से जीव जंतु आदि भयभीत होकर भागने लगते हैं | त्रिदोषों में हुए ऐसे असंतुलन को सह न पाने के कारण मनुष्य  पशु पक्षी आदि सभी जीव जंतुओं की बेचैनी विशेष बढ़ जाती है | ऐसे समय  सभी प्राणी उन्माद की भावना से भावित हो उठते हैं | प्राणियों की इस बेचैनी का कारण त्रिदोषों में हुआ ऐसा आकस्मिक असंतुलन होता है | जिसे सहने का उनको अभ्यास नहीं होता है | इस घबड़ाहट को घटाने के लिए मनुष्य तो मनोरंजन के साधन अपना लिया करते हैं| जिससे मन की बेचैनी कुछ कम हो | ऐसे  परिविर्तन से बेचैन पशु पक्षी पागलों की तरह उन्मादित होते देखे जाते हैं | 
      इसीलिए कोरोना काल में महामारी लोगों को संक्रमित तो कर ही रही थी | इसके साथ ही उस समय पशु पक्षियों के उपद्रवों की अधिकता थी | उसी समय भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएँ  भी घटित हो रही थीं | 

                                     पंचतत्व  तथा वातादि दोष एवं स्वास्थ्य !
    
    आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों से संसार एवं शरीर दोनों का निर्माण होता है | इन्हीं पंचतत्वों में से आकाश अर्थात खाली जगह और पृथ्वी अर्थात ठोसतत्व स्थिर रहते हैं |इन दो के अतिरिक्त वायु अग्नि और जल जो तीन बचते हैं|आयुर्वेद की भाषा में वायु अग्नि जल को ही वात पित्त और फफ के नाम से जाना जाता है |पित्त का मतलब आग एवं कफ का मतलब जल होता है| वात  का  अर्थ है वायु ,  ये तीनों ही संतुलित मात्रा में रहकर प्रकृति और शरीरों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है | इन तीनों की मात्रा असंतुलित होने पर ये प्रकृति और शरीरों को रोगी बनाते हैं | इसलिए इन्हें त्रिदोष  कहा जाता है | 
     ऐसे ही  शिशिरऋतु  का मतलब कफ ग्रीष्म ऋतु का मतलब पित्त तथा वर्षाऋतु का मतलब वात होता है |शिशिर (सर्दी) ऋतु में सर्दी होती ही है,ऐसे ही ग्रीष्मऋतु में गर्मी होती है| वर्षाऋतु में वर्षा होती है | ये सब ऋतुओं के अपने अपने प्रभाव होते हैं |
    जिसप्रकार से सब्जी बनाने के लिए कड़ाही तेल मशाले नमक मिर्च आदि उचित मात्रा में डाले जाएँ तभी वह स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य के लिए हितकर बनती है |उसी सब्जी में वही तेल मशाले आदि यदि बहुत अधिक या बहुत कम डाल दिए जाएँ तो उस सब्जी के स्वाद और गुण दोनों बिगड़ जाते हैं |ऐसे ही औषधि  निर्माण प्रक्रिया में घटक द्रव्यों को उचित अनुपात में डालकर बनाई गई औषधियाँ  ही रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम होती हैं| उनमें से कुछ द्रव्यों को यदि निर्धारित मात्रा से कम या अधिक डाल दिया जाए तो उसऔषधि के प्रभाव में अंतर आ जाता है| इस असंतुलन की मात्रा में यदि बहुत अधिक अंतर आ जाए तो वह औषधि  स्वास्थ्य के लिए अहितकर भी हो सकती है | 
     इसीप्रकार से मनुष्य आदि सभी प्राणियों को उचितमात्रा में वात पित्त आदि ऋतुओं के प्रभाव की आवश्यकता होती है |प्राणियों की तरह प्रकृति को भी  ऋतुओं के प्रभाव की आवश्यकता होती है | प्रकृति और जीवन को जिस समय जितनी मात्रा में वर्षा या तापमान की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ रह सकता है और उतने में ही साँस लेकर मनुष्य आदि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस मात्रा से कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं | जो प्रकृति और जीवन दोनों के ही लिए अच्छा नहीं होता है |त्रिदोषों का यह असंतुलन कई बार प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला होता है | 
      शिशिर ऋतु में उचित मात्रा में सर्दी पड़ने का मतलब स्वस्थ प्रकृति एवं स्वस्थ शरीरों के लिए जितनी मात्रा में सर्दी की आवश्यकता है उतनी सर्दी पड़ी है | उससे कम या अधिक पड़ने का मतलब सर्दी का प्रभाव प्रकृति एवं स्वास्थ्य के लिए  हितकर नहीं है |सर्दी जितनी अधिक या कम होती है उतना ही अधिक प्रकृति एवं स्वास्थ्य के लिए अहितकर होता है |ऐसी न्यूनाधिकता जब ग्रीष्म और वर्षा ऋतु के प्रभाव में भी दिखाई पड़ती है,तब भी इससे प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों महारोगों आदि के पैदा होने की संभावना बन जाती है |    
   कुल मिलाकर वात पित्त और कफ के असंतुलित होते ही प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के प्रतिकूल होने लग जाता है | दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं|यदि यह असंतुलन शरीर में बन जाए तो शरीर रोगी होने लगते हैं| वात, पित्त,और कफ़ में से एक भी यदि असंतुलित होने लगे तो प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने लगता है|जिससे तरह तरह की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने लगती हैं|कुछ उसप्रकार के रोग पैदा  होने लगते हैं|ऐसे ही यदि कोई दो दोष असंतुलित हो जाएँ तो  वातावरण और अधिक बिगड़ता जाता है |प्राकृतिक आपदाएँ अधिक घटित होने लगती हैं | मनुष्यादि जीवों में बड़े बड़े रोग पैदा होने लगते हैं |यदि तीनों दोष असंतुलित हो जाएँ तो प्राकृतिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ जाता है |उससे जहाँ एक ओर महामारी जैसे बड़े बड़े रोग पैदा होते हैं |वहीं दूसरी ओर भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ निर्मित होने लगती हैं |

                                                  हवाएँ और महामारियाँ      

    प्राकृतिक वातावरण में कफ बढ़ेगा तो पित्त कमजोर पड़ेगा | पित्त बढ़ेगा तो कफ कमजोर पड़ेगा | कफ या पित्त में जब जो बलवान होगा | वायु तत्व उसी का साथ देने लगता है | शिशिर ऋतु के प्रभाव से चलने वाली ठंडी ठंडी हवाएँ ग्रीष्म ऋतु का प्रभाव पड़ते ही गर्म लू बनकर झुलसाने लगती हैं |ऐसी स्थिति में कफ आदि किसी एक में बिकार होने पर तीनों दोष बिकारित होने लगते हैं|ये असंतुलन यदि थोड़ा बढ़े तो छोटे रोग पैदा होते हैं | यदि ये असंतुलन बहुत अधिक बढ़ जाए तो महामारी जैसा बड़ा संकट पैदा हो जाता है |
      वात पित्त और कफ में से पित्त गरम और कफ ठंढा होता है|ये स्थिर रहते हैं | इनके गर्म और ठंडे प्रभाव को हवाएँ ही इधर उधर ले जाती हैं |ग्रीष्मऋतु  में  पित्त के उष्ण प्रभाव को हवाएँ जब कहीं ले जाती हैं तो उसे लू कहते हैं और शिशिर ऋतु में कफ के ठंडे प्रभाव को हवाएँ जहाँ कहीं ले जाती हैं |वहाँ पर ठंड के प्रभाव को बढ़ा देती हैं | इसलिए गतिवानवायु के प्रभाव से प्रकृति और जीवन में अधिकाँश घटनाएँ घटित होती हैं | 
     इसलिए पित्त आदि त्रिदोषों का आपसी संतुलन जब बिगड़ने लगता है| उस समय सबसे पहले हवाओं में ऐसे बिकार आने शुरू होते हैं |जो प्रकृति और जीवन दोनों के लिए अहितकर  होते हैं|ऐसी बिकारित हवाएँ  तीन प्रकार से जीवन को नुक्सान पहुँचाती हैं | एक तो बिकारित हवाओं में साँस लेने से लोग रोगी होते हैं|दूसरा कारण बिकारित हवाओं में पले बढ़े फूलों फलों अनाजों दालों तथा शाकसब्जियों आदि खाद्य पदार्थों में भी वैसे ही  बिकार पैदा होने लग जाते हैं | जिससे उनमें उनके अपने गुणों की कमी होकर वात पित्तादि दोष बढ़ने लग जाते हैं |इससे जो फल फूल अनाज दालें शाक सब्जी आदि जिन गुणों के लिए अनंत काल से जानी जाती रही हैं | उनके उन गुणों में कमी आ जाती है|वे कुछ ऐसे दूसरे दोषों से युक्त हो जाती हैं |जिनका सेवन करने से लोग रोगी होने  लग  जाते हैं | तीसरा कारण ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने वाली औषधियाँ जिन बनस्पतियों से बनाई जाती हैं | वे बनस्पतियाँ  भी उन्हीं बिकारित हवाओं में पली बढ़ी होती हैं |इसलिए उनके अपने गुणों में भी कमी आ जाती है एवं वे कुछ दूसरे गुणों से युक्त हो जाती हैं|ऐसी बिकारित बनस्पतियों से निर्मित औषधियाँ उन रोगों से मुक्ति दिलाने में समर्थ नहीं रह जाती हैं |जिसके लिए वे जानी जाती हैं |  इन तीनों कारणों से महामारी जैसे महारोगों का जन्म होना प्रारंभ होता है | 
    इस प्रकार से वात पित्त कफ में सबसे पहले वात अर्थात हवाओं में बिकार आते हैं |बिकारित हवाएँ संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण को प्रदूषित कर देती हैं | जल को प्रदूषित कर देती हैं | जल और वायु के बिगड़ जाने से ऐसे वातावरण में पले बढ़े फूलों फलों अनाजों दालों तथा शाकसब्जियों आदि खाद्य पदार्थों की भी गुणवत्ता में न केवल कमी आ जाती है | प्रत्युत उनमें कुछ ऐसे बिकार भी आ जाते हैं | जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर होते हैं |इसलिए ऐसी वस्तुओं को बिषैला मान लिया जाता है | 
     हाल में ही प्रकाशित एक अंतर्राष्ट्रीय शोध में कहा गया है -"चावल में जहरीले आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ रही है, जिससे कैंसर होने का खतरा बढ़ गया है।आर्सेनिक कोई नया तत्व नहीं है यह जमीन पानी और हवा में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है | इसका कारण जलवायुपरिवर्तन को बताया जा रहा है |"  
  इसे वैदिकतर्कविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा होने का कारण वात पित्त और कफ के आपसी अनुपात का असंतुलित  होना ही है ,अन्यथा ऐसे वकारित प्राकृतिक वातावरण का प्रभाव केवल चावलों पर ही क्यों पड़ेगा |   यह आर्सेनिक यदि जमीन पानी और हवा में प्राकृतिक रूप पाया जाता है तो इससेचावलों की तरह ही सभी फल फूल अनाज दालें शाक सब्जी बनस्पतियाँ आदि बिषैली होने लगेंगी | ऐसे बिकारों से तो समस्त भोज्य पदार्थ  प्रभावित होते हैं |  ऐसे समय मनुष्यों के साथ साथ खाने पीने की वस्तुएँ औषधियाँ आदि सबकुछ संक्रमित होती हैं | इसलिए रोग असाध्य होते चले जाते हैं | उस समय संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण के बिगड़ने से सब कुछ बिगड़ जाता है |इसीलिए रोग दिनों दिन बढ़ते चले जाते हैं |
      महामारी के समय मनुष्य शरीरों में जिन जीवनीय तत्वों की कमी या बढ़ोत्तरी हो जाती है| उसकी आपूर्ति के लिए कोई विकल्प इसलिए नहीं होता है,क्योंकि उस समय जिस प्रदूषित हवा में साँस लेने से  उन तत्वों की कमी आदि हुई होती है| रोगी  होने के बाद भी साँस तो उन्हीं प्रदूषित हवाओं में लेनी होती है | स्वास्थ्य कारक जीवनीय तत्वों की कमी या अधिकता  उस समय के खान पान संबंधी वस्तुओं में इसलिए होती है,क्योंकि वे फल फूल अनाज दालें शाक सब्जियाँ आदि भी उसी प्रदूषित वातावरण में पले बढ़े होते हैं | इसलिए वे स्वयं भी अस्वस्थ होते हैं |उसी प्रदूषित वातावरण में पले बढ़े होने के कारण उसी प्रकार की कमी बनस्पतियों एवं अन्य औषधीय द्रव्यों  में भी होती है | इसीलिए ऐसी औषधियों से महामारीजनित रोगों से मुक्ति मिलनी संभव नहीं हो पाती है | ऐसी स्थिति में  महामारी जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिए  कोई उपाय होता ही नहीं है |यदि कुछ किया भी जाता है तो उसका उतना प्रभाव नहीं पड़ पाता है | जिससे समाज को सुरक्षित बचाया जा सके |  इसीलिए ऐसे महारोग अपने समय से ही समाप्त होते हैं | 
     ऐसे समय में मनुष्यों के शरीर जिस अनुपात में जिन तत्वों की कमी या अधिकता से रोगी हो रहे होते हैं | उन तत्वों की कमी या अधिकता उसी अनुपात में उस समय पैदा हुए फूलों फलों अनाजों दालों तथा शाक सब्जियों में भी होती है | इसलिए उन्हें खाने से भी उन तत्वों की भरपाई भोजन से नहीं हो पा रही होती है | उसी अनुपात में उन तत्वों की कमी या अधिकता उस समय की बनस्पतियों एवं अन्य औषधीय द्रव्यों में भी होती है | इसलिए ऐसे द्रव्यों से निर्मित औषधियों से भी ऐसे समय में रोगी हुए शरीरों  को कोई मदद नहीं मिल पाती है |

                                       
                                समय और हवाओं के भी होते हैं  स्वाद और गुण 

    वृक्षों बनस्पतियों शाक सब्जियों अनाजों दालों आदि में उनके जो विशिष्ट गुण होते हैं |वो ऋतु प्रभाव से घटते बढ़ते रहते हैं| इसीलिए अपनी ऋतुओं को छोड़कर कुछ दूसरी ऋतुओं में पैदा होने वाले फल फूल शाक सब्जियों आदि में न तो उस प्रकार का स्वाद रहता है और न ही उस प्रकार के गुण रहते हैं |ऋतु के अनुरूप हवाएँ न चलें तो भी अनाजों दालों फलों फूलों शाक सब्जियों आदि के स्वाद और गुणों में बिकार आ जाते हैं | इसीप्रकार से वृक्षों बनस्पतियों फूलों फलों शाक सब्जियों अनाजों दालों चावलों आदि के स्वाद और गुणों में स्थानों के अनुसार अंतर आ जाता है|इस सबसे खान पान की वस्तुओं के स्वाद गुणों आदि में जो अच्छे या बुरे बदलाव होते हैं उनसे खाद्यपदार्थों  के स्वाद और गुणों में तो अंतर आता ही है | इसके साथ ही साथ वे परिवर्तन मनुष्यों के स्वाद बनाने और बिगाड़ने में समर्थ होते हैं |इसलिए जब जिस प्रकार के रोग फैलने लगें  उस समय प्रकृति के सभी अंगों का सभी प्रकार से अनुसंधान किया जाना चाहिए |  
    ग्रीष्म (गर्मी) की ऋतु का स्वाद मीठा होता है | इस मीठेपन का प्रभाव मनुष्यों से लेकर सभी प्राणियों बृक्षों बनस्पतियों पर पड़ता है |इसी गर्मी के प्रभाव से इमली एवं अंबी जैसे खट्टे फल गरमी के प्रभाव से मीठे हो जाते हैं | खरबूजा तरबूज जैसे फल मीठे हो जाते हैं | गर्मी का प्रभाव जितना अधिक बढ़ता है | ऐसे फलों में मधुरता उतनी अधिक बढ़ती चली जाती है |
    इसी प्रकार से ग्रीष्मऋतु  में चलने  वाली लू जैसी गर्म हवाएँ मीठी होती हैं |इसीलिए लू जितनी अधिक चलती है खरबूजा तरबूज इमली एवं अंबी आदि फलों की मधुरता उतनी अधिक बढ़ जाती है | इसीप्रकार से हेमंतऋतु में उत्तर दिशा की ओर से आने वाली हवाएँ मधुर होती हैं | ये हवाएँ जितनी अधिक चलती हैं|वातावरण में उतनी ही मधुरता बढ़ती है |इसीलिए हेमंतऋतु शुरू होने के बाद ही ईख (गन्ने ) में मधुरता बढ़ती है |  
    किसी वर्ष ग्रीष्मऋतु यदि गर्मी का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ जाता है, तो संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण में मधुरता का प्रभाव बढ़ जाता है | ऋतु प्रभाव से या वायु प्रभाव से मधुरता अधिक बढ़ने से शुगर जैसे रोगों के पैदा होने एवं बढ़ने की संभावना अधिक रहती है|ऐसे समय अति मधुरता के कारण फलों सब्जियों आदि में कीड़े लग जाते हैं |मधुरता पसंद मक्खियों चीटियों की अधिकता देखी जाती है | ग्रीष्मऋतु का प्रभाव एवं हेमंतऋतु के समय उत्तर दिशा से आने वाली हवाओं का प्रभाव जब बहुत अधिक बढ़ जाता है तो अधिक मधुरता से होने वाले  बड़े रोगों के पैदा होने की संभावना बनने लगती है|इसीप्रकार से यदि ग्रीष्मऋतु का प्रभाव एवं हेमंतऋतु के समय उत्तर दिशा से आने वाली हवाओं का प्रभाव यदि बहुत कम हो जाता है तो खरबूजा तरबूज इमली एवं अंबी आदि फलों की मधुरता उतनी अधिक नहीं बढ़ पाती है | ऐसे वर्षों में फलों सब्जियों में कीड़े नहीं लगते हैं |मधुरता पसंद मक्खियों चीटियों आदि की संख्या उतनी अधिक नहीं बढ़ पाती है|ऐसे वर्षों में मधुरता के अभाव में होने वाले रोग होते हैं |यदि मधुरता बहुत कम होती है तो इससे संबंधित कुछ बड़े बड़े रोगों को पैदा होते देखा जाता है | 
    इस प्रकार समय से संबंधित वात पित्त  कफ जैसे त्रिदोषों,अलग अलग ऋतुओं भिन्न भिन्न दिशाओं का प्राकृतिक वातावरण पर प्रभाव पड़ता है | इसका प्रभाव प्रकृति से लेकर प्राणियों तक पर पड़ते देखा जाता है |
       इसलिए   प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुसंधान करने के लिए आवश्यक है कि प्रतिपल प्रकट और समाप्त होते रहने वाले प्राकृतिक चिन्हों को ध्यान से देखा जाए !उन बहुत सारे चिन्हों के वर्ग बनाकर उनका मिलान करते रहा जाए | जब जिस वर्ग के जितने प्रतिशत चिन्ह दिखाई दे रहे हैं |वह वर्ग वातपित्त कफ आदि जिस धातु से संबंधित होता है | उस समय प्राकृतिक वातावरण में उस प्रकार के दोष बढ़ रहे होते हैं | उन्हीं दोषों से पैदा होने वाले रोगों की संभावना होती है | 

                                           स्वाद बदलने से भी बदलता है स्वास्थ्य 

     स्वास्थ्य के लिए भोजन सबसे अधिक महत्त्व रखता है | इसलिए भोजन  बिगड़ने से  स्वास्थ्य  बिगड़ता है | कुछ अनाजों  दालों  फूलों  फलों आदि का भोजन में अक्सर व्यवहार होता है | कुछ का कम व्यवहार होता है| उसमें भी कुछ वस्तुओं का व्यवहार भोजन में बहुत कम होता है | जिन खाद्य वस्तुओं का भोजन में जितने प्रतिशत व्यवहार होता है |उनका स्वाद गुण आदि बिगड़ने का उतने प्रतिशत प्रभाव  पड़ता है |
     त्रिदोष असंतुलित होने के कारण उस वर्ष पैदा होने वाले वृक्षों बनस्पतियों अनाजों दालों तथा शाक सब्जियों पर पड़ता है|फलों आदि के आकार प्रकार तथा स्वाद आदि में बदलाव आने लगते हैं| ऐसीस्थिति में प्राकृतिक वातावरण  में धातुओं  के न्यूनाधिक्य से शरीर रोगी होते हैं|उसी वातावरण में पैदा हुए अनाजों दालों तथा शाक सब्जियों को खाने से प्रतिरोधक क्षमता घटती है तथा रोग बढ़ते हैं |
  कभी कभी वृक्षों की हरी हरी सुकोमल पत्तियों में पकी पत्तियों की तरह दरारें आने लगती हैं|कई बार कुछ  फसलों में कीड़े लगने लगते हैं |आम जैसे वृक्षों में बौर बहुत लगता है किंतु उस अनुपात में फल नहीं फलते हैं |वृक्ष समय से पहले या बाद में फूलते फलते देखे जाते हैं | कई बार फलों के आकार प्रकार कुछ छोटे या बड़े  होने लग जाते  हैं| खेतों में खड़ी फसलों में अनाजों या दालों के दाने कभी कभी कुछ छोटे  या बड़े होते देखे जाते हैं|उनके आकार प्रकार के साथ ही साथ उनके स्वाद में भी परिवर्तन आने लगता है| उनके गुणों में भी अंतर होते देखा जाता है |ऐसी घटनाएँ प्रायः किसी रोग या  महारोग के पैदा होने से पहले घटित होते देखी जाती हैं |  
     उसी बिकारित  वातावरण में पैदा हुए या पले बढ़े द्रव्यों बनस्पतियों आदि से जो औषधियाँ बनाई जाती हैं | उनमें भी धातुओं की अधिकता या न्यूनता रहती है | जिससे उनके स्वाद में तो विकार आते ही हैं गुणों में भी बिकार आते हैं | इसीलिए ऐसे वातावरण में पैदा हुए औषधीय द्रव्यों से बनी औषधियों का उपयोग करने से लाभ नहीं होता है क्योंकि उनमें भी उन तत्वों की कमी या अधिकता रही ही होती है |
      ऐसी परिस्थिति में जिन रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए जिन औषधियों को जाना जाता है |उन रोगों से पीड़ितों पर उन्हीं औषधियों का प्रभाव नहीं पड़ते देखा जाता है |ऐसे तत्वों का असंतुलन यदि बहुत अधिक हो जाए तो ऐसे ही प्राकृतिक असंतुलनों से महारोग या महामारी पैदा होते देखी जाती है | 
         
        मनोरंजन भी प्रभावित करते हैं स्वास्थ्य 


3. त्रिदोषों का असंतुलन और प्राकृतिक घटनाएँ (प्रकृति और पेड़ पौधे )गर्मी 

4.त्रिदोषों का प्राणियों पर प्रभाव !गर्मी 

5. रोग और महारोग (सब्जी में मशाले आदि )गर्मी 

6. चिकित्सा और उसका प्रभाव गर्मी 

7 . ऋतुएँ और वातादि दोष  ऋतु चर्या 

8. वातादि दोष और समय गर्मी 

9. घटनाओं के आधार पर  पूर्वानुमान गर्मी 

10. गणित विज्ञान के आधार पर पूर्वानुमान  गर्मी                   

                                                  कोरोना काल में  पशु पक्षियों की व्याकुलता             


महामारी प्राकृतिक थी या मनुष्यकृत 
     
    वात पित्त कफ का असंतुलन किसी व्यक्ति में होता है तो वो अकेला अस्वस्थ होता है किंतु यदि एक समय में एक जैसे रोग से रोगी बहुत लोग रोगी होने लगें तो ये प्राकृतिक रोग होता है | 
    ऐसे रोगियों की चिकित्सा प्रारंभ कर दी जाए यदि उससे रोगमुक्ति मिलने लगे तो रोग मनुष्यकृत है और यदि रोगियों की चिकित्सा किए जाने पर भी उससे कोई विशेष लाभ न हो और रोगियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही हो तो ये प्राकृतिक रोग के लक्षण हैं | 
    प्राकृतिक रोग जब प्रारंभ होता है उससे काफी पहले से पेड़ों पौधों फूलों फलों अनाजों शाक सब्जियों बनस्पतियों आदि में भी उस प्रकार के परिवर्तन होने लगते हैं | प्रकृति में यदि ऐसे परिवर्तन होते दिखाई न दें तो इस प्रकार के रोग मनुष्यकृत होते हैं |  
     किसी  समय कोई रोग बहुत तेजी से फैलता जा रहा हो किंतु बाक़ी प्रकृति शांत एवं हमेंशा की तरह सामान्य  व्यवहार करती जा  रही हो तो इसका मतलब वह रोग मनुष्यकृत है ,क्योंकि प्राकृतिक रोग होने पर उस रोग के साथ साथ उस प्रकार की मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाएँ भी घटित होते देखे जाती हैं |यदि ऐसा हो तो उसे प्राकृतिक रोग माना जाना चाहिए | 
   प्राकृतिक रोग प्रारंभ होते समय प्राकृतिक वातावरण में पंचतत्वों में भी उसीप्रकार के बदलाव होते हैं| उसी प्रकार की  घटनाएँ घटित होने लगती हैं| पशुओं पक्षियों के व्यवहार में उसप्रकार के बदलाव होने लगते हैं  |जो वैसे हमेंशा नहीं देखे जाते हैं | 
     मनुष्यों की वैज्ञानिक पहुँच जितनी भी उन्नत हो उसके आधार पर जिस रोग या  महारोग के  विषय में लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि यदि सही निकल रहे हों तो रोग मनुष्यकृत है अन्यथा ऐसे रोगों महारोगों के कारण प्राकृतिक होते हैं |
     जिस रोग महारोग आदि के विषय में बनाई गई औषधि उस रोग पर इतनी प्रभावी होने लगे कि यह औषधि लेने के बाद उस रोग से पूर्णतः मुक्ति मिल ही जाएगी ऐसा भरोसा हो | उस औषधि को लेने के बाद रोगियों को रोगमुक्ति मिल भी जाती हो | परीक्षण में इस बात की पुष्टि हो जाने के बाद ऐसे रोगों को मनुष्यकृत अन्यथा प्राकृतिक माना जाना चाहिए | 
   वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा जिस महारोग का विस्तार पता कर लिया जाए | प्रसार माध्यम खोज लिया जाए !अंतर्गम्यता पता लगा ली जाए |उस रोग या महारोग पर मौसम का प्रभाव पड़ता है या नहीं ये पता लगा लिया जाए | तापमान बढ़ने घटने का प्रभाव पड़ता है या नहीं | वायु प्रदूषण बढ़ने घटने का प्रभाव पड़ता है या नहीं !रोगियों को छूने से रोग बढ़ता है या नहीं ! महामारी पैदा और समाप्त होने का कारण खोज लिया जाए | महामारी की लहरों के आने और जाने का निश्चित कारण खोज लिया जाए | ऐसे विषयों में लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि  सही निकलने लगें, तो ऐसी महामारी मनुष्यकृत होती है! अन्यथा ऐसे रोगों को प्राकृतिक माना जाना चाहिए | 
   प्राकृतिक और मनुष्यकृत रोगों का अंतर करना कई बार इसलिए कठिन हो  जाता है,क्योंकि जिस समय प्राकृतिक रूप से कुछ घटित होने जा रहा होता है|संयोगवश उस समय प्राणियों के द्वारा भी उसी प्रकार का आचरण  किया जाने  लगा होता है | 
    कई बार जिस रोग से मुक्ति मिलने का समय प्राकृतिक रूप से आ चुका होता है | उस समय औषधि के नाम पर जो कुछ भी दिया गया होता है| जिस किसी चिकित्सक के पास जाया गया होता है | उस रोग से मुक्ति मिलने का श्रेय उसी औषधि ,उपाय चिकित्सक आदि को दे दिया जाता है | जिनका अपना समय अच्छा नहीं चल रहा होता है | ऐसे कुछ दूसरे उसी प्रकार के रोगियों को उसी चिकित्सक के पास ले जाया गया होता है | उन्हीं औषधियों को दिया गया होता है किंतु वे स्वस्थ नहीं होते हैं | यदि केवल चिकित्सक और औषधि के द्वारा स्वस्थ हुआ जाना संभव हो तब तो उन्हें भी स्वस्थ हो जाना चाहिए था | इसलिए किसी के स्वस्थ और अस्वस्थ होने में समय की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है | 
     ऐसी परिस्थिति को समझने के लिए औषधियों से स्वस्थ हुए लोगों का मिलान कुछ उन लोगों से किया जाना चाहिए जिन्हें उस प्रकार की चिकित्सा का लाभ नहीं मिला होता है |  
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                                                    महामारी से सुरक्षा की कठिनाइयाँ 

      किसी रोग या महारोग से बचाव के लिए जो उपाय करने होते हैं |वे तभी किए जा सकते हैं जब रोग समझ में आवे | त्रिदोषों के असंतुलित होने के लक्षण तो प्राकृतिक वातावरण में कुछ वर्ष पहले से प्रारंभ हो जाते हैं | यदि उस पद्धति से अलग हटकर  बिचार किया जाए तो महामारी शुरू होने के बाद ही पता लग पाता है कि महामारी प्रारंभ हो  गई है | 
      इसके बाद इतने बड़े रोग को समझने के लिए भी समय चाहिए| उसकी चिकित्सा कैसे हो इस बिचार विमर्श के लिए समय चाहिए |महामारी जैसे इतने बड़े रोग से सुरक्षा के लिए व्यवस्था भी उतनी ही बड़ी और शीघ्र से शीघ्र करनी होगी |इतनी अधिक मात्रा में औषधि निर्माण के लिए औषधीय द्रव्यों के संग्रह,औषधिनिर्माण एवं उन्हें जन जन तक वितरित किया जाना आदि कार्यों के लिए जितना समय चाहिए | उतने समय में तो काफी जनहानि हो जाती है |महामारी इतने विशाल वेग से इतनी बड़ी संख्या में लोगों को संक्रमित करती जा रही हो | उसमें बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त होते जा रहे हों | ऐसे संकटकाल में ये सब तुरंत कैसे किया जा सकता है |इतने कम समय में किए गए प्रयासों के बल पर महामारी से समाज को सुरक्षित बचाया जाना तो दूर महामारी के स्वभाव को समझना ही संभव नहीं हो पाता है |  
    कुलमिलाकर महामारी जैसी इतनी बड़ी आपदा से समाज को सुरक्षित रखने के लिए जो प्रयत्न किए जाने आवश्यक होते हैं| उन्हें करने के लिए जो समय चाहिए | वो तभी मिल सकता है, जब ऐसी घटनाओं के विषय में आगे से आगे सही पूर्वानुमान लगाए जा सकें |  ऐसा न हो पाने के कारण ही  महामारियाँ हमेंशा  रहस्य ही बनी रहती हैं | उन्हें समझना कभी संभव ही नहीं हो पाता है | उनके विषय में अनुमानों पूर्वानुमानों के नाम पर जो कल्पनाएँ की जाती हैं |वे कितनी सही होती हैं| इस विषय में विश्वास पूर्वक कुछ भी कहा जाना संभव नहीं हो पाता है |भविष्य विज्ञान के अभाव में उनका  सही निकलना बहुत कठिन होता है |  

       पूर्वानुमान  लगाने के लिए किसी ऐसे भविष्यविज्ञान की आवश्यकता है | जिससे भविष्य में झाँका जाना संभव हो  |पूर्वानुमानों के नाम पर किसी प्राकृतिक घटना के विषय में  कुछ भी बोल दिए जाने से कोई विशेष मदद इसलिए नहीं मिल पाती है क्योंकि  वो सही गलत कुछ भी निकल  सकता है | ऐसी आशंका हमेंशा बनी  रहती है | इसका कारण ऐसे पूर्वानुमानों का वैज्ञानिक आधार न होना है | पहले लगाए गए  पूर्वानुमानों से प्राकृतिक लक्षणों का मिलान करके ये पता लगाया जाना चाहिए कि महामारी के विषय में पहले जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए  गए थे |वे कितने प्रतिशत सच निकले  हैं  | उन्हें भविष्य के लिए भी उतने प्रतिशत ही सच माना जाना चाहिए | 
      पूर्वानुमानों के नाम पर कुछ भी बोल दिया जाना |उनका घटनाओं के साथ मिलान न होना ये अनुसंधानों का अधूरापन है | भूकंप वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं महामारी जैसी घटनाओं के पैदा होने के लिए जिम्मेदार कारणों के विषय में जो कल्पनाएँ की जाती  हैं या अनुमान पूर्वानुमान आदी लगाए जाते हैं| ऐसे अनुमानों  पूर्वानुमानों के साथ उन घटनाओं का मिलान करने पर जितने प्रतिशत  सही निकलें |उतने प्रतिशत ही उन कल्पनाओं अनुसंधानों को उपयोगी माना जाना चाहिए | 
     विशेष बात यह है कि भविष्यविज्ञान के अभाव में प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे लगाए जाएँ | इसके लिए जितने परिणामप्रद  प्रयत्न किए जाने आवश्यक होते हैं | ऐसा किया जाना  जब तक संभव नहीं हो पा रहा   है, तब तक के लिए ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्यों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से भारत के प्राचीन विज्ञान की मदद ले ली जानी चाहिए | 
        तीसरा अध्याय 

                                                         प्राचीन विज्ञान और पूर्वानुमान 

     
   ऋषियों मुनियों का जीवन  
   चरक संहिता में 



                                      वात, पित्त, और कफ़ और उनके स्रोत 

यहाँ पूरा लेख वातपित्त कफ को ग्रहों ऋतुओं और समय से जोड़ा जाना है 

           
   समय के प्रभाव से कैसे पैदा होती है महामारी !

    सृष्टि के निर्माण से लेकर उसके संरक्षण संचालन आदि में ऋतुओं की बहुत बड़ी भूमिका है|इनके उचित प्रभाव को पाकर ही प्राकृतिक वातावरण रहने लायक बन पाता है | इनके उचित प्रभाव का सेवन करके ही मनुष्य जीवन सुरक्षित रह सकता है| 
     ऋतुओं का आना जाना तो हर वर्ष लगा रहता है किंतु उनका प्रभाव हमेंशा एक जैसा नहीं रहता है| ऋतुओं का प्रभाव किसी वर्ष कम तो  किसी वर्ष अधिक होता है| कई बार कुछ ऋतुओं का प्रभाव  अपने निर्धारित समय से कम समय तक रहता है तो किसी वर्ष अधिक समय तक रहता है |ऋतुओं का प्रभाव असंतुलित होते ही प्राकृतिक वातावरण साँस लेने लायक नहीं रह जाता है | ऐसे वातावरण में साँस लेने से शरीर रोगी होने  लगते हैं | 
        आयुर्वेद में जिस कफ पित्त वात की चर्चा की गई है | वो शिशिर (सर्दी) ग्रीष्म (गर्मी) वर्षा  आदि ऋतुओं का प्रभाव ही तो है | जिस प्रकार से शरीरों में कफ पित्त वात की मात्रा असंतुलित होते ही शरीर रोगी होने लग जाते हैं | ऐसे ही प्राकृतिक वातावरण में कफ पित्त वात का आपसी अनुपात बिगड़ते ही प्राकृतिक वातावरण रोग पैदा करने वाला हो जाता है| इसप्रकार का असंतुलन यदि बहुत अधिक बढ़ जाता है तो महारोग अर्थात महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं  | 
    कभी कभी किसी एक ऋतु  का प्रभाव किसी दूसरी ऋतु में दिखाई पड़ता है |ऐसी परिस्थिति में  सर्दी और गर्मी की ऋतुओं में भी वर्षा होते देखी जाती है|कभी कभी तो दूसरी ऋतुओं में काफी अधिक वर्षा होने के कारण बाढ़ जैसे दृश्य देखे जाते हैं | 
     ऐसे ही सर्दी की ऋतु में तापमान जितना होना चाहिए |यदि उससे अधिक रहता है या कभी कभी वर्षाऋतु में तापमान अधिक बढ़ जाता है | इसप्रकार से ऋतुओं का प्रभाव जब असामान्य रूप से बढ़ने या घटने लगता है तब प्रकृति और जीवन दोनों में ही बिकार आने लग जाते हैं |                                                  
                                               
                                               



ते या महामारी जैसी बीमारी बीमारियाँ हो सकती हैं | वात दोष हवा से जुड़ा है. पित्त दोष आग से जुड़ा है,कफ़ दोष पानी से जुड़ा है | सन्निपात एक ऐसी शारिरिक समस्या है जिसमें आयुर्वेद अनुसार वात पित्त एवं कफ तीनों बढ़ जाते है जिसके कारण व्यक्ति अपना मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन खो देता है।जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य स्मृति खो देता है और वह पागल की तरह आचरण करने लगता है ज्यादातर मामलों किसी गम्भीर बीमारी के चलते सन्निपात देखा जाता है जिसमें अधिकतर मामलों में सामान्य से अधिक बुखार जिम्मेदार है। कई मामलों में गम्भीर परिणाम देखे गए है। 
 
से अनुमान लगाना ही संभव है |  
    भारत के जिन प्राचीन वैज्ञानिकों ने गणित के आधार पर ग्रहों के संचार को सफलता पूर्वक न केवल समझ लिया था ,प्रत्युत उनके विषय में या सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में सैकड़ों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा लिया लगे थे | उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारी जैसे संकटों से मनुष्यों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण खोजें की होंगी | इसपर विश्वास करके भी अनुसंधान किए जाने की आवश्यकता है | 
     इसके लिए  ऐसी घटनाओं के घटित होने के काफी  पहले से सुरक्षा की अत्यंत सुदृढ़ व्यवस्था करके रखनी होगी | ऐसा तभी किया जा सकता है ,जब पूर्वानुमान लगाने की क्षमता मजबूत हो | जिसके  द्वारा ऐसी घटनाओं के  विषय में काफी पहले से सही सही पूर्वानुमान लगाना संभव हो | ऐसा करने  के लिए उसप्रकार के विज्ञान की आवश्यकता है |जिसके द्वारा भविष्य में झाँकना संभव हो |ज्योतिषशास्त्र के अतिरिक्त ऐसा कोई दूसरा विज्ञान नहीं है |    
     इसप्रकार की घटनाओं के विषय में ज्योतिष के बिना पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है|महामारी अचानक आती है| उससे तेजी से लोग संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं| ऐसी स्थिति में कौन सा उपाय करके लोगों को संक्रमित होने या मृत्यु से बचाया जा सकता है | 
       महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने के लिए जिन तीन बातों को  जिम्मेदार  बताया जाता रहा है |उनमें से एक 
  मौसम संबंधी घटनाएँ ,दूसरी तापमान बढ़ने और घटने जैसी घटनाएँ तथा तीसरी वायुप्रदूषण बढ़ने जैसी घटनाएँ हैं|इन तीन में से कोई  एक या फिर तीनों  ही  घटनाओं को महामारी पैदा होने या इससे संबंधित संक्रमण बढ़ने  के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा है | यदि  इस बात पर विश्वास किया जाए तो मौसम,तापमान एवं वायुप्रदूषण के विषय में पहले से पूर्वानुमान लगाए बिना महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाना कैसे संभव है | 
    कुलमिलाकर प्राकृतिक घटनाओं से समाज को सुरक्षित बचाया जाना तभी संभव है ,जब बचाव के लिए प्रभावी तैयारियाँ  पहले से करके रखी जाएँ | ऐसा करने के लिए इन घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान पहले से पता होने आवश्यक हैं  कि  ऐसी घटनाएँ कब घटित होने वाली हैं | इस विषय में आगे से आगे पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई प्रभावी प्रक्रिया खोजनी होगी | दीर्घावधि पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई विज्ञान ही  नहीं है | विज्ञान के बिना ऐसे अनुसंधान कैसे किए जा सकते हैं और पूर्वानुमान कैसे लगाए जा सकते हैं | पूर्वानुमान लगाने के लिए यदि कोई विज्ञान होता तो कोरोना महामारी के विषय में पहले से सही पूर्वानुमान लगाया जा सका होता|
                                                                       भूमिका   
       
       
      समय निराकार है महामारी निराकार है ट्रेन 

  भारत में इससे पहले का भी कोई 

या महामारियाँ इनमें से जिन हिंसक घटनाओं के विषय में पहले से सही सही पूर्वानुमान नहीं लगाए जा सकते हैं | उनसे समाज की सुरक्षा कैसे की जा सकती है | ऐसी हिंसक घटनाओं का वेग बहुत अधिक होता है | उनसे बहुत बड़ी संख्या में लोग अचानक पीड़ित होने लगते हैं| इनसे सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी तैयारियाँ करके पहले से रखनी होती हैं | उसके लिए पर्याप्त संसाधनों एवं समय की आवश्यकता होती है | ऐसी घटनाओं से सुरक्षा  करने की तैयारियाँ करने के लिए समय तभी मिल सकता है जब पहले से सही पूर्वानुमान लगा लिए जाएँ |
      वर्तमानसमय में मौसम पूर्वानुमान के  नाम पर जो अंदाजे लगाए जाते हैं | वे तत्कालीन प्राकृतिक परिस्थितियों  के आधार पर उसी समय के विषय में लगाए जाते हैं जो चल रहा होता है | इनका भविष्य से कोई संबंध इसलिए नहीं होता है | जिन उपग्रहों रडारों या सुपरकंप्यूटरों की मदद से ऐसे पूर्वानुमान लगाने की बात कही जाती है | उनमें ऐसी क्षमता ही नहीं है कि उनके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को देखा या अनुभव किया जा सके |    
    वर्षा या आँधीतूफानों  के विषय में पूर्वानुमान लगाने की बात कही जाती है|उपग्रहों रडारों से उन्हीं घटनाओं को देखा जा सकता है जो उस समय कहीं दिखाई दे रही होती हैं | उन्हीं की गति और दिशा के अनुसार ये अंदाजा लगाया जाता है कि ये घटनाएँ इतनी गति से जिस दिशा में बढ़ रही हैं | उसी दिशा में यदि इतने घंटे तक और आगे बढ़ती रहें तो अमुकदेश या प्रदेश में पहुँच सकती हैं | उसी के अनुसार अंदाजा लगाकार भविष्यवाणी कर दी जाती है कि कब कहाँ वर्षा होगी या आँधी तूफ़ान आएँगे | 
    इसमें विशेष बात ये है कि ये बादल या आँधी तूफ़ान उसी दिशा में चलते रहेंगे या बीच में  हवा की दिशा या गति बदल जाएगी | तेज धीमी हो जाएगी | इसका अंदाजा लगाना संभव नहीं होता है| इसीलिए यदि हवा में ऐसा कुछ बदलाव होता है तो लगाए हुए अंदाजे गलत निकल जाते हैं |
   हवा की दिशा गति आदि यदि न बदले तो भी उसके आधार पर ये कैसे कहा जा सकता है कि वर्षा कब तक होती रहेगी या ये तूफ़ान कब तक आते रहेंगे | ऐसे ही आज के दो चार महीने बाद वर्षा ऋतु में वर्षा कैसी होगी | मानसून कब आएगा और कब जाएगा | इस वर्ष ग्रीष्मऋतु में आँधी तूफानों की घटनाएँ कैसी घटित होंगी | इस वर्ष शिशिरऋतु  में सर्दी कैसी पड़ेगी | ग्रीष्मऋतु  में गर्मी कैसी पड़ेगी | उपग्रहों रडारों के आधार पर  इसे पता किया जाना संभव नहीं है | 
      प्राकृतिक वातावरण का भविष्य में क्या स्वरूप होगा |कब बादल आएँगे,कब आँधी तूफ़ान वर्षा या बज्रपात होगा | किस साल कैसी वर्षा होगी, किस वर्ष मानसून कब आएगा या कब जाएगा |किस वर्ष सूखा पडेगा या किस वर्ष अधिक वर्षा होगी | किस वर्ष अधिक सर्दी या गर्मी होगी | यह जानने के लिए कोई विज्ञान नहीं है | उपग्रहों रडारों या सुपर कंप्यूटरों से ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं खोजे जा सकते हैं | 
      ऐसे विषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों के अभाव में जो भविष्यवाणियाँ की जाती हैं | उनके गलत निकल जाने पर कुछ लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं | इसके लिए कुछ लोग जलवायुपरिवर्तन को जिम्मेदार बताते हैं |किस घटना ने कितने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है| कुछ लोग यह बताते सुने जाते हैं| कुछ कहते हैं कि यदि ऐसी घटनाएँ यूँ ही घटित होती रहीं तो आज के सौ दो सौ वर्ष बाद ऐसी ऐसी प्राकृतिकआपदाएँ रोग महारोग आदि पैदा होते देखे जाएँगे | ग्लेशियर पिघल जाएँगे,समुद्र का जलस्तर बढ़ जाएगा ! बार बार सूखा पड़ेगा !भीषण तूफ़ान आएँगे !बार बार बाढ़ आएगी | कई शहर डूब जाएँगे आदि | ऐसी बातों से न तो समाज के किसी काम की होती हैं और न ही इनका कुछ वैज्ञानिक  आधार होता है |
     कई बार एक दो सप्ताह तक लगातार वर्षा और बाढ़ होते देखी जाती है | ऐसे ही एक दो सप्ताह के अंदर कई बार कई कई तूफान आ जाते हैं | ऐसी वर्षा बाढ़ या तूफ़ान आदि कब तक आते रहेंगे और इस वर्ष इतनी अधिक संख्या में ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण क्या है और कब तक ऐसा चलता रहेगा| ऐसे प्रश्नों के उत्तर उपग्रहों रडारों की मदद लेकर भी नहीं खोजे जा सकते हैं | 
      पूर्वानुमान लगाने का मतलब है कि जिन घटनाओं के भविष्य में घटित होने  की संभावना हो | उनके विषय में पहले से सही अनुमान (अंदाजा ) लगाया जा सके |ऐसा करने के लिए किसी ऐसे विज्ञान की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को पहले से देखा या अनुभव किया जा सके |अभी तक ऐसा कोई विज्ञान नहीं है|जिसके द्वारा भविष्य में झाँकना संभव हो| भविष्य को देखे या अनुभव किए बिना भविष्य की घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है|इसीलिए मौसम या महामारी संबंधी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है | वस्तुतः मौसमविज्ञान में विज्ञान कहाँ है | यह स्वयं में अनुसंधान का विषय है |
     कुलमिलाकरविश्व में ऐसा कोई विज्ञान ही नहीं है|  जिसके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में कुछ जानना समझना या पूर्वानुमान लगाना संभव हो | 
    भूकंप और महामारियों को आते हुए उपग्रहों रडारों से भी नहीं देखा जा सकता है| इसलिए इनके विषय में पूर्वानुमान लगाने के नाम पर अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है|जो लगाया भी जाता है वो गलत निकल जाता है |    विशेष बिचार करने योग्य बात यह है कि यदि भविष्य में झाँकने के लिए कोई भविष्यविज्ञान नहीं है तो स्वाभाविक ही है कि भविष्य को समझने वाले वैज्ञानिक भी नहीं होंगे | इसके बिना भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में किसी प्रकार का कोई अनुमान पूर्वानुमान लगाया जाना संभव नहीं है| यदि लगाया भी जाए तो उसका आधार वैज्ञानिक नहीं है|वो यह समझकर लगाया जाता है कि ये सही गलत दोनों ही निकल सकते हैं | 
     स्थिति में मौसम या महामारी संबंधी पूर्वानुमान यदि नहीं लगाए जा पाते हैं अथवा लगाए हुए पूर्वानुमान यदि गलत निकल जाते हैं तो इसका वास्तविक कारण भविष्यविज्ञान का अभाव है | इसके लिए जलवायुपरिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तन को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है| इसके लिए ऐसे भविष्यविज्ञान को खोजे जाने की आवश्यकता है जिसके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव हो | यदि ऐसा कोई विज्ञान ही नहीं है तो जलवायुपरिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तन जैसी काल्पनिक बातों को वैज्ञानिक तर्कों  की कसौटी पर कैसे कसा जाएगा | 
  इसका कारण भविष्य में झाँकने के लिए किसी विज्ञान का न होना है | इसीलिए दीर्घावधि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है | 
 प्राचीनविज्ञान एवं मौसम और  महामारी 
      प्राचीनकाल में उपग्रहों रडारों तथा सुपर कंप्यूटरों की व्यवस्था न होने पर भी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगा लिए जाते थे | महाकवि घाघभंडरी के समय में भी ऐसी कोई वैज्ञानिक सुविधा नहीं थी, फिर भी वे न केवल प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगा लिया करते थे ,प्रत्युत वैसे सूत्रों का निर्माण भी  कर लिया करते थे कि यदि ऐसा ऐसा होगा तो इस इस प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होंगी | 
    उपग्रह रडार  तथा सुपर कंप्यूटर आदि न होने पर भी  तूफ़ानों तथा  चक्रवातों के विषय में सैकड़ों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा लिए जाते थे |उस दिन तूफ़ान पैदा होगा |गणित विज्ञान के द्वारा ऐसा निश्चित हो जाने के बाद यह पता लगाना आवश्यक होता है कि यह तूफ़ान किस देश की ओर जाएगा |इसके लिए उस समय के प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर तूफ़ान से प्रभावित होने वाले संभावित देशों के विषय में अनुमान लगाया जाता था |वर्तमान समय में  उपग्रहों रडारों  से इसे देखने में मदद मिल सकती है |  
   ऐसे ही वर्षा के विषय में किन वर्षों के किन महीनों के किन दिनों में कैसी वर्षा होगी |इसका पूर्वानुमान गणित के द्वारा सैकड़ों वर्ष पहले  लगा लिया जाता था |उन पूर्वानुमानों के अनुसार जिस घटना के लिए जो समय पता लगाया जाता था | उस समय के कुछ पहले से प्राकृतिक लक्षणों को पैनी दृष्टि से देखना होता है |उन गणितीय पूर्वानुमानों से उन पूर्व लक्षणों का मिलान यदि हो जाता था तो उन पूर्वानुमानों को संपूर्ण रूप से सच मान लिया जाता था कि इस दिन वर्षा होगी | इसके बाद स्थान पता लगाना होता था कि उन दिनों में वर्षा कहाँ होगी | यह पता लगाने के लिए प्रत्यक्ष प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर अनुसंधानपूर्वक स्थान पता लगाया जाता था | उपग्रहों रडारों  रडारों के सहयोग से  ये कार्य आसान हो सकता है |  
     विशेष बिचार करने वाली बात ये है कि जिस प्रकार से संपूर्ण चराचर जगत समय के आधीन है | उसी प्रकार से सूर्यादि ग्रहों की भी प्रत्येक गतिविधि समय से अनुशासित है | उन्हें समय के द्वारा निर्धारित नियमों का अनुपालन करना होता है | उनका कहीं आना जाना तथा उदय अस्त होना सब कुछ समय के अनुसार ही घटित होता है|जिस प्रकार से सरकार के द्वारा बनाई गई रेलवे की समयसारिणी का पालन प्रत्येक ट्रेन को करना होता है | समय सारिणी में जिस ट्रेन को जितने बजे जिस स्टेशन पर पहुँचने का समय दिया गया होता है|प्रत्येक ट्रेन को उतने बजे उस स्टेशन पर पहुँचना पड़ता है| इसीप्रकार से समय के द्वारा बनाई गई इस संपूर्ण संसार की समय सारिणी होती है जिसका पालन इस संपूर्ण विश्व को करना ही होता है | जिस कार्य को जिस व्यक्ति के द्वारा जितने समय पर होना निर्धारित होता है | वह कार्य उसी के द्वारा उतने ही समय पर होता है | 
     इसी प्रकार से सूर्यादि ग्रहों की समयसारिणी होती है |जिसके अनुसार सूर्यादि ग्रहों का आना जाना तथा उदय अस्त आदि की घटनाएँ पूर्व निर्धारित समय पर ही घटित होती हैं | उन ग्रहों कोउन उन स्थानों पर अपने अपने निर्धारित समय पर पहुँचना पड़ता है |इसलिए कौन ग्रह कहाँ कब पहुँचेगा | इसका ज्ञान उसकी समय सारिणी के आधार पर गणना करके कर लिया जाता है | इसी गणना के आधार पर ग्रहों तथा सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में सैकड़ों वर्ष पहले सही पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | 
       सूर्य का प्रभाव बढ़ने से तापमान बढ़ जाता है और  घटने से तापमान कम हो जाता है |जब तापमान जितना कम होता है तब हवाएँ उतनी ठंडी होती हैं और जब तापमान जितना अधिक होता है तब हवाएँ उतनी गर्म होती हैं | ठंडी हवाओं की गति कम होती है तथा गर्म हवाओं की गति अधिक होती है | आँधी तूफ़ान जैसी घटनाओं के घटित होने का कारण तापमान का अधिक होना ही होता है | ऐसे वर्षा और बज्रपात होने का कारण तापमान है| रोग और महारोग (महामारी) होने का कारण भी तापमान का असंतुलन ही होता है| 
     आयुर्वेद में वात पित्त कफ के असंतुलन से रोगों का पैदा होना माना जाता है| असंतुलन जितना अधिक होता है रोग उतना बड़ा होता है | इसमें पित्त बढ़ने का मतलब तापमान बढ़ना कफ बढ़ने का मतलब तापमान कम होना और वात  मतलब हवा होती है | तापमान अधिक होने पर हवा गर्म अर्थात लू चलती है | लू लगने से बहुत लोग अस्वस्थ हो जाते हैं | ऐसा ही ठंडी हवाओं का मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है |वात पित्त कफ के असंतुलन से ही कोरोना जैसी महामारियाँ  पैदा होती हैं | 
     इससे ये स्पष्ट होता है कि सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण तापमान का अनियमित रूप से बढ़ना घटना है | जिसका कारण सूर्य और उसका न्यूनाधिक प्रभाव है | सूर्य के संचार के विषय में यदि गणित के द्वारा पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता है तो सभी प्राकृतिक घटनाओं एवं महामारियों के विषय में भी ग्रहगणित के द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है क्योंकि उनके घटित होने का कारण भी सूर्य संचार ही है |    
     कुल मिलाकर जिस सूर्य संचार के आधार पर सभी बसंतादि ऋतुओं का निर्माण होता है|वही सूर्य सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण भी  है | जिसप्रकार से गणित के द्वारा गणना करके सूर्य संचार के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | उसी ग्रहगणितीय गणना  के द्वारा सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | 
     इसी ग्रहगणना एवं उसके प्रभाव के विषय में अनुसंधान पूर्वक मैंने जितनी भी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में मैं जो जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाता रहा हूँ वे सही निकलते रहे हैं |इसी ग्रहगणितीय गणना  के द्वारा  महामारी की लहरों के विषय में मैं जो जो पूर्वानुमान लगाता  रहा हूँ | वे सही निकलते रहे हैं |सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं तथा महामारियों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाने के लिए ऐसे अनुसंधानों को बड़े स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है | इन अनुसंधानों से ऐसी घटनाओं को समझने में मदद मिल सकती है |


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                               वातादि दोषों में संभावित परिवर्तनों का पूर्वानुमान (ज्योतिष) 

       वातादि दोष केवल स्वास्थ्य को ही प्रभावित नहीं करते हैं ,प्रत्युत संसार में घटित होने वाली  वर्षा बाढ़ भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  आदि सभी घटनाओं को प्रभावित करते हैं |अनाजों दालों  पेड़ों पौधों शाक सब्जियों  फूलों फलों  को भी प्रभावित करते हैं | इसीक्रम में वे मनुष्यों समेत समस्त जीव जंतुओं के मनों तथा शरीरों को प्रभावित करते हैं | जिससे मन आंदोलित होते हैं उन्मादित होते हैं |बेचैन होते हैं | 
    इसी प्रकार से वातादि दोष सभी जीवधारियों के शरीरों को प्रभावित करते हैं | मनुष्य  शरीरों को भी अस्वस्थ करते हैं | जिससे रोग महारोग आदि पैदा होते देखे जाते हैं | महामारियाँ वातादि दोषों के असंतुलित होने का ही परिणाम होती हैं | कोरोना महामारी प्रारंभ होने के वर्षों पहले से ही वातादि दोष असंतुलित होने लगे थे | समय रहते यदि इस असंतुलन को पहचान लिया गया होता  तो महामारी आने से पहले महामारी के विषय में पूर्वानुमान  लगाया जा सकता था | 
      इस असंतुलन  को पहचानने का एक प्रकार तो था कि  उस प्रकार की  प्राकृतिक घटनाओं का अनुभव करते हुए  त्रिदोषों के असंतुलन का पूर्वानुमान लगा लिया जाता | ऐसा हिंदी के महाकवि घाघ किया करते थे | वे इसी प्रक्रिया के आधार पर मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया करते हैं  |दूसरी प्रक्रिया यह है कि समय  के आधार पर प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान  लगा लिया जाता | 'कालज्ञानंग्रहाधीनं' अर्थात समय का ज्ञान  ग्रहों के आधीन है |उन  ग्रहों के संचार के विषय में सूर्य चंद्र ग्रहणों  की तरह  गणित के द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |ग्रह नक्षत्रों  आदि के विषय में गणित के द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | इसी पूर्वानुमान के आधार पर त्रिदोषों के संतुलन असंतुलन आदि के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | उसी के आधार पर समस्त प्राकृतिक घटनाओं  फसलों फूलों फलों आदि के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | रोगों महारोगों के विषय में  उसी गणित के द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | 

सूर्य मंगल - पित्त,चंद्र शुक्र -कफ,शनि राहु  केतु - वात ,एवं बुध और गुरु  दोनों सम  होते हैं |  
    इसीप्रकार से  राशियों में -
    वृष कन्या  मकर - वात \ मेष सिंह  धनु - पित्त \ कर्क बृश्चिक मीन -कफ \मिथुन तुला कुंभ - सम  होती हैं | 
      
    इस प्रकार से वात   पित्तादि  त्रिदोषों के असंतुलन के विषय में ग्रहों राशियों के आधार पर गणित के द्वारा पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | 

                                         प्राकृतिकरूप से  पैदा हुई थी महामारी !
    इतना तो सबको  पता ही है कि कोरोना महामारी सारे विश्व में एक ही समय में आई थी|महामारी आने का कारण यदि प्रतिरोधक क्षमता की कमी को माना जाए तो सारे विश्व की प्रतिरोधक क्षमता अचानक एक ही समय में कम होने का  कोई प्रत्यक्ष मनुष्यकृत कारण नहीं है |जिसे प्रतिरोधक क्षमता घटने के लिए जिम्मेदार माना जाए |  
    महामारी का पैदा होने एवं उसकी लहरों के आने के लिए तापमान घटने को या वायुप्रदूषण बढ़ने को अथवा अन्य मौसम संबंधी घटनाओं को जिम्मेदार बताया जाता रहा है | ऐसे ही कोविडनियमों का पालन न करने को जिम्मेदार माना जाता रहा है | 
      इस प्रकार से महामारी पैदा होने या उसकी लहरों के आने के लिए जितने भी कारण गिनाए जाते रहे उन कारणों में एक रूपता  नहीं थी | ऐसी घटनाएँ समय स्थान आदि कारणों से सभी जगह एक जैसी नहीं घटित होती हैं | सभी जगह का मौसम एक जैसा नहीं रहता है | कोविडनियमों का पालन भी सभी देशों में एक समान नहीं किया जाता रहा है | इसके बाद भी महामारी सभी देशों एक ही साथ क्रमशः फैलती चली गई | महामारी की लहरें भी प्रायः सभी देशों में एक ही साथ आती रहीं हैं | इससे यह सिद्ध हो जाता है कि महामारी पैदा होने या उसकी लहरों के आने के लिए इनमें से कोई भी मनुष्यकृत कारण जिम्मेदार नहीं थे | 
      इसी प्रकार से महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए प्लाज्माथैरेपी ,रेमडेसिविर या वैक्सीन लगाने जैसे प्रयोग सभी देशों में एक समय पर एक जैसे नहीं किए गए | सभी देशों  या लोगों के द्वारा अपनी  अपनी आवश्यकता सुविधा पहुँच क्षमता विश्वास आदि के आधार पर अलग अलग उपाय अपनाए जाते रहे | उपायों के नाम पर और भी बहुत कुछ किया जाता रहा | उनमें से क्या उचित था क्या अनुचित  या कौन उपाय कितना प्रभावी था कौन नहीं था | ये किसी को पता नहीं था | इस विषय में विश्वास पूर्वक कुछ भी कहा जाना संभव नहीं था |  
    इसी प्रकार से महामारी की कोई लहर सारे विश्व में एक साथ आती थी |जो कोविड  नियमों का पालन जो नहीं करते थे | वहाँ  आती थी तो जो करते थे वहाँ भी आती थी|ऐसे ही जिन देशों में जब वायुप्रदूषण बढ़ता था महामारी की लहर वहाँ आती थी तो जिन देशों में जब नहीं बढ़ता था महामारी की लहर तो वहाँ भी आती थी |  
  ऐसे ही लहर सारे विश्व में एक साथ घटती जाती थी|ऐसा होने के पीछे मनुष्यकृत  कारण क्या हो सकते हैं |लॉकडाउन सभी देशों ने एक जैसा नहीं लगाया !वैक्सीन का लाभ सबको एक जैसा नहीं मिला !खान पान सबका एक जैसा नहीं रहा | चिकित्सा का लाभ सबको एक जैसा नहीं मिला | कोविड  नियमों का पालन सभी देशों में एक जैसा नहीं किया गया | 
    इस सबके बाद भी महामारी का प्रकोप  सभी  स्थानों पर प्रायः एक जैसा रहा | महामारी की लहरें सभी देशों में साथ साथ आती और जाती रहीं | महामारी सभी देशों में साथ साथ ही समाप्त हुई |ऐसा होने के लिए मनुष्यकृत कारणों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं थी |
        कुलमिलाकर महामारी विश्व के प्रायः सभी  देशों में आई थी | सभी देशों में एक साथ बढ़ती घटती रही थी और समाप्त भी सभी देशों में एक ही साथ हुई थी |महामारी के पैदा या  समाप्त होने में उसकी लहरों के आने और जाने में मनुष्यकृत ऐसा क्या कारण हो सकता है|जो संपूर्ण विश्व को एक साथ एक जैसा प्रभावित कर सकता हो | जिसकी संपूर्ण विश्व में एक समय में एक जैसी भूमिका रहती रही हो | यदि ऐसा कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है तो महामारी को प्राकृतिक दृष्टि से पैदा एवं समाप्त होने के सच को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता है | 

                                               महामारी पैदा होने का कारण है समय !

     प्राकृतिक रूप से महामारी पैदा हुई थी यदि इसे ऐसा ही सच मान लिया जाए तो प्रकृति के किस अंग की कितनी भूमिका किस प्रकार से रही होगी | यह बिचार किया जाना सबसे पहले आवश्यक है | 
    सन 2020 के मई जून जुलाई के महीनों तक महामारी से सुरक्षित रहने एवं रोगमुक्ति दिलाने के लिए कोई प्रभावी औषधि खोजी नहीं जा सकी थी|इसके बाद भी महामारी संक्रमितों को दिनोंदिन अपने आपसे ही रोगमुक्ति मिलती जा रही थी |जिसे देखकर कुछ वैज्ञानिकों को यह कहते हुए सुना जा रहा था कि वैक्सीन अब कभी नहीं बन पाएगी क्योंकि परीक्षण के लिए रोगी ही नहीं मिल रहे हैं |रोगी अपने आप से ही रोगमुक्त होते जा रहे थे|इसमें यदि मनुष्यकृत प्रयत्नों का कोई योगदान नहीं था, तो लोगों के स्वस्थ होने में भूमिका किसकी थी  |
   इसीप्रकार से  सन 2020 के अक्टूबर नवंबर महीनों  में वायु प्रदूषण दिनों दिन बढ़ता एवं महामारी जनित संक्रमण कम होता जा रहा था | ऐसे ही सन 2021 के मार्च अप्रैल महीनों में वायुप्रदूषण इतना कम था कि पंजाब एवं बिहार से हिमालय दिखाई पड़ने लगा था|भारत में इसी समय महामारी का भयंकर प्रकोप देखा जा रहा था | विश्व के कई देश या स्थान ऐसे भी हैं |जहाँ वायु प्रदूषण बढ़ता नहीं है|महामारीजनित संक्रमण तो वहाँ भी बढ़ते देखा जा रहा था | ऐसे और भी उदाहरण हैं जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि महामारी का प्रकोप बढ़ने घटने में वायु प्रदूषण की कोई भूमिका रही हो | यह प्रत्यक्षसाक्ष्यों के आधार पर प्रमाणित नहीं हो पा रहा है | 
    ऐसे ही तापमान जैसे जैसे कम होता जाएगा महामारी जनित संक्रमण वैसे वैसे बढ़ता चला जाएगा | वैज्ञानिकों के द्वारा पहले ऐसा अनुमान लगाया गया था ,किंतु तापमान कम होने पर भारत में केवल तीसरी लहर ही आई थी, बाक़ी तीन लहरें तो तापमान बढ़े रहने पर ही आई हैं| कुछ देश या स्थान ऐसे हैं जहाँ अन्य स्थानों की अपेक्षा गर्मी अधिक पड़ती है , किंतु ऐसे स्थानों पर भी महामारी का प्रकोप उसी प्रकार का था जैसा अन्य देशों में था | इसलिए तापमान का महामारी से कोई संबंध था|इसविषय में प्रत्यक्ष रूप से कोई साक्ष्य नहीं हैं | 
    महामारी पैदा होने के लिए पहले जिस बिषाणु को जिम्मेदार बताया गया था |वो किसी देश विशेष की लैब से लीक हुआ है|ऐसा कहा जा रहा था,किंतु  किसी स्थान पर माचिस की तीली जलाकर डाल देने मात्र से वहाँ  आग नहीं लग जाती है | उसे जलने के लिए ज्वलनशील ईंधन भी तो चाहिए | उसके बिना आग कैसे फैल सकती है | ऐसे ही यदि ये सच है कि बिषाणु किसी देश विशेष की प्रयोगशाला से ही लीक हुआ था तो उस बिषाणु को  संपूर्ण विश्व में फैलाने के लिए किसी प्रसार माध्यम की आवश्यकता थी |वो प्रसार माध्यम क्या था | उसे प्रमाणित रूप से स्वीकार करने के लिए कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हैं | महामारी के पैदा होने में या बार बार उसकी लहरें पैदा या समाप्त होने में या महामारी के समाप्त होने में या महामारीजनित बिषाणुओं का विस्तार होने में मनुष्यकृत कोई प्रत्यक्षभूमिका दूर दूर तक  दिखाई नहीं पड़ रही है | 
   आयुर्वेद की दृष्टि से देखा जाए तो वात पित्त और कफ के असंतुलन से महामारियाँ पैदा होती हैं | वात का अर्थ है हवा ,पित्त का अर्थ है अग्नि (तापमान) एवं कफ का अर्थ है जल !इनके विषय में पहले बिचार किया जा चुका है | इसलिए त्रिदोषों में किस प्रकार का असंतुलन होने पर किस प्रकार के रोग या महारोग जन्म लेते हैं | महामारी की दृष्टि से इस विषय पर बिचार किया जाना आवश्यक है | 
     महर्षि चरक कहते हैं कि 'वाताज्जलं जलाद्देशं देशात्कालं  स्वभावतः |' 'अर्थात वायु से जल और जल से स्थान तथा स्थान से समय का प्रभाव अधिक होता है |' 
    इस दृष्टि से देखा जाए तो वायु जल स्थान और समय में से जो सभी जगह एक समान रूप से विद्यमान हो महामारी पैदा और समाप्त होने का कारण वही हो सकता है| वायु बहुत स्थानों पर होता है किंतु निर्वात स्थान भी होते हैं जहाँ वायु नहीं होती है |इसके अतिरिक्त कुछ स्थान ऐसे होते हैं जहाँ शीतल मंद सुगंधित वायु होती है,तो बहुत स्थान ऐसे भी होते हैं जहाँ प्रदूषित वायु होती है |इसलिए विश्व के अधिकाँश देशों में  महामारी पैदा होने का कारण वायु  नहीं हो सकती  है , क्योंकि महामारी प्रभावित सभी देशों में हमेंशा एक प्रकार की वायु नहीं बहती है |
     ऐसे ही जल स्वच्छ और दूषित दोनों प्रकार का होता है |आयुर्वेद में 16 प्रकार के जल का वर्णन मिलता है |विश्व के अधिकाँश देशों में एक प्रकार का जल सुलभ नहीं है | ऐसी स्थिति में विश्व के अधिकाँश देशों को एक जैसा संक्रमित करने वाली महामारी के पैदा होने का कारण जल कैसे हो सकता है | 
     स्थान पर बिचार किया जाए तो  पृथ्वी के अधिकाँश देशों की भिन्न भिन्न प्रकार की भूमि है | वे भिन्न भिन्न प्रकार के गुणों दोषों से युक्त हैं | इसीलिए वहाँ भिन्न भिन्न प्रकार के पेड़ पौधे वृक्ष बनस्पतियाँ फसलें फल फूल आदि होते देखे जाते  हैं |पृथ्वी पर सभी स्थान एक जैसे न होने के कारण सभी देशों को एक प्रकार से प्रभावित करने वाली महामारी के पैदा होने का कारण कोई स्थान विशेष नहीं हो सकता है |   
       इसमें सबसे अधिक प्रभावी काल अर्थात समय को माना जाता है |समय ही ऐसा है जिसका प्रभाव संपूर्ण ब्रह्मांड पर एक जैसा पड़ता है | पृथ्वी का प्रत्येक छोटा से छोटा अंश समय से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है| सारे  संसार पर समय का एक जैसा प्रभाव पड़ता है | इसलिए मनुष्य समेत समस्त जीव जंतु एवं संपूर्ण चराचर जगत समय से  एक जैसा प्रभावित होता ही है |संपूर्ण विश्व को एक जैसा प्रभावित करने महामारी पैदा होने का कारण भी समय ही है | समय ने ही संपूर्ण विश्व को एक जैसा प्रभावित करने वाली महामारी को जन्म दिया है | समय के प्रभाव से प्रभावित होकर ही महामारी संबंधी लहरें आती और जाती रही हैं |महामारी पैदा होने का जब समय आया तब महामारी पैदा हुई | महामारी का प्रभाव बढ़ने का समय जब जब आया तब तब प्रभाव बढ़ते देखा गया |महामारी का प्रभाव कम होने का जब जब समय आया तब तब प्रभाव कम होते देखा गया | महामारी को जितने वर्ष रहने का समय था | उतने वर्ष तक महामारी बनी रही | महामारी के समाप्त होने का जब समय आया तब महामारी समाप्त हो गई | महामारी का समय समाप्त होते ही संपूर्ण विश्व के संक्रमित लोग स्वतः ही स्वस्थ होते चले गए | जिन्हें चिकित्सा या वैक्सीन आदि उपचार मिले वे तो स्वस्थ हुए ही उन्हीं के साथ वे भी स्वस्थ हुए जिन्हें ऐसे उपचार नहीं मिले | समय के साथ सब कुछ अच्छा हो गया |
                                                        समय और प्राकृतिक घटनाएँ 
     समय दो प्रकार का होता है एक प्राकृतिक समय  और दूसरा सबका अपना अपना समय  होता है | प्राकृतिक समय संपूर्ण ब्रह्मांड का एक साथ बदलता है | इसलिए प्राकृतिक समय सबका साथ साथ बदलता है | इसका अच्छा बुरा प्रभाव प्राकृतिक वातावरण पर पड़ता है | सभी प्राकृतिक घटनाओं महामारियों आदि के घटित होने का कारण वही प्राकृतिक समय होता है | दूसरा जो समय सबका व्यक्तिगत अपना अपना होता है | ये मनुष्यों पशुओं पक्षियों वृक्षों बनस्पतियों भवनों वस्तुओं  घटनाओं संबंधों रोगों पदों  प्रतिष्ठाओं आदि का होता है | जिस प्रकार से सूर्य जिस समय उगता है | उसके अस्त होने का समय भी उसी  समय निश्चित हो जाता है | इसी प्रकर से सभी मनुष्यों पशुओं पक्षियों वृक्षों बनस्पतियों भवनों वस्तुओं  घटनाओं संबंधों रोगों पदों  प्रतिष्ठाओं  आदि के जन्म होने के समय ही उनके समाप्त होने का समय निश्चित हो जाता है | इसलिए संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने समय के अनुसार सुख दुःख उन्नति अवनति आदि पाता  है | 
    वर्षा बाढ़ भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि जितनी भी प्राकृतिक घटनाएँ हैं | वे भी प्रकृति के गर्भ में जब पैदा होती हैं | उसी समय उनके समाप्त होने अर्थात घटित होने का समय प्राकृतिक रूप से ही निश्चित हो  जाता है | इसलिए उन्हें उसीप्रकार से अपने समय पर घटित होना ही होता है | जिस प्रकार से सूर्य चंद्र जैसे सभी ग्रहों को अपने अपने समय से उदित या अस्त होते देखा जाता है |सभी ऋतुएँ अपने अपने समय से आती जाती रहती हैं | संपूर्ण प्रकृति ही उस समय का पालन कर रही है | 
      जिसप्रकार से ट्रेनों को अपनी समय सारिणी के अनुसार निर्धारित समय पर अपने अपने गंतव्य पर पहुँचना पड़ता है | इसी प्रकार से ईश्वर रचित समय का संविधान सभी को मानना पड़ता है | संपूर्ण प्रकृति ही उसी का पालन कर रही है | सूर्य चंद्र जैसे ग्रहों को अपने अपने निर्धारित समय पर उगना तथा अस्त होना पड़ता है | सभी ग्रहों नक्षत्रों आदि को उनके लिए निर्धारित समय का पालन करना पड़ता है | सूर्य चंद्र ग्रहणों के घटित होने के लिए जो समय पहले निर्धारित  कर दिया गया होता है | उसी समय वो घटना घटित होनी होती है | इसलिए सूर्य चंद्र  तथा पृथ्वी को उसीसमय एक सीध में पहुँचना पड़ता है | ऋतुओं का जो समय कर्म आदि पूर्व निर्धारित है | वे अपने निर्धारित समय पर ही उसी क्रम में आती जाती रहती हैं |
        कुलमिलाकर समय का ही संविधान सर्वोपरि है | वही इस चराचर जगत के प्रत्येक अंश पर सभी जगह तथा सभी घटनाओं एवं परिस्थितियों पर लागू होता है | प्रत्येक घटना घटित होने एवं प्रत्येक परिस्थिति  बनने बिगड़ने में समय की ही भूमिका होती है | इस सच्चाई को समझते और स्वीकार करते हुए घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए घटनाओं की जगह उस घटना से संबंधित  समय  पर ध्यान होना चाहिए ,क्योंकि जिस घटना का समय जैसा होगा | उस घटना को उसी समय वैसा ही घटित होना होगा  | सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में लगाए हुए पूर्वानुमान इसीलिए सही निकलते हैं क्योंकि सूर्य चंद्र पृथ्वी  आदि को देखे बिना ग्रहण के घटित होने का समय खोजा जाता है | समय पता लगते ही ये भरोसा हो जाता है कि सूर्य चंद्र पृथ्वी जैसे अतिविशाल पिंडों को उस दिन उतने बजे एक सीध में पहुँचना ही होगा और वे पहुँचते भी हैं | 
     इसीप्रकार से  वर्षा बाढ़ भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि जितनी भी प्राकृतिक घटनाएँ हैं |उन्हें भी उनके लिए निर्धारित समय पर ही घटित होना ही पड़ता है| वे अपने समय पर घटित होने के लिए ही अनंत काल से प्रतीक्षा कर रही होती हैं | जिस  घटना के घटित  होने का जब समय आता है तब वो घटित होने लगती है | घटनाओं के घटित होने का मतलब उस घटना से संबंधित प्रकृतिगर्भ का प्रसव होता है | जिस प्रकार से किसी सजीव के प्रसव वेग को नहीं रोककर नहीं रखा  जा सकता है | उसी प्रकार से किसी घटना को घटित होने से  रोका नहीं जा सकता है |  
    ऐसी सभी घटनाएँ आदिकाल से ही प्रकृति के गर्भ में अपने अपने घटित होने के समय की प्रतीक्षा कर रही होती हैं | इसलिए इनके विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए इन्हें देखने की अपेक्षा इन घटनाओं को देखने की अपेक्षा उनके  घटित होने के समय का पता लगाया जाना चाहिए |  घटनाएँ तो स्वतः समय के आधीन हैं इसलिए उन्हें देखकर सही पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है |                      

                                                 घटनाएँ और उनसे प्रभावित लोग  
     संसार समय की धारा में बहता  चला चला  जा रहा है | माँ गंगा  की धारा की तरह समय की धारा  है |उस धारा में अच्छी बुरी सभी प्रकार की घटनाएँ बहते अर्थात घटित होते देखी जाती हैं | गंगधार में कुछ लोग नहाते हैं | कुछ लोग गंगाजल पीकर जीवन पाते  हैं | इससे उन्हें पुण्य और सुख मिलता है | ऐसा उनके साथ होता है जिनका अपना समय अच्छा चल रहा होता है | जिनका अपना समय बुरा चल रहा होता है | वे कुछ लोग उसी गंगधार  को प्रदूषित  कर रहे होते हैं | कुछ लोगों की उसी गंगधार में डूब कर मृत्यु भी हो जाती है | इन दोनोंप्रकार की परस्पर विरोधी घटनाओं के घटित होने में गंगा जी की कोई भूमिका नहीं है | जिसका जैसा समय उसके साथ वैसा घटित हो रहा है | 
    देखा जाए तो गंगा जी की धारा के बहने से उनका कोई नुक्सान नहीं होता ,प्रत्युत गंगा जी की धरा से जिस प्रकार से घटनाओं के घटित होने से मनुष्यों का नुक्सान नहीं होता है |जो करने से  नुक्सान हो सकता है | बुरे समय से प्रभावित लोग वही करने लगते हैं | इसलिए उनका नुक्सान हो जाता है | 
    ऐसी स्थिति में जिस व्यक्ति की डूबने से मृत्यु हुई होती है | वर्तमान समय में प्रचलित जिस प्रत्यक्षविज्ञान की दृष्टि से बिचार किया जाता है| समय तो प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ता है |इसलिए उस घटना में समय की भूमिका क्या है | ये पता ही नहीं लग पाता है | 
      समय संचार के कारण घटित होने वाली घटनाओं को समझने के लिए समय संबंधी जानकारी चाहिए | उसके अभाव में  घटना स्थल पर जो प्रत्यक्ष साक्ष्य या परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं |उन्हीं के आधार पर जोड़ तोड़करके जो कुछ कारण गढ़ लिए  जाते हैं | उन्हें न तो तर्क की कसौटी पर कैसा जाना संभव होता है और न ही उनके आधार पर घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान ही लगाए जा सकते हैं | उन्हें केवल मान लेना होता है |
   जिस प्रकार से उस  व्यक्ति के डूबने का कारण खोजना हो तो  वो व्यक्ति उल्टा गिर गया होगा ! पानी में उसकी दम  घुट गई होगी  !कोई चोट लग गई होगी आदि | ऐसा हो ऐसा भी सकता है किंतु ऐसा ही होगा यह निश्चित नहीं है | यदि ऐसा होगा भी तो समयके सहयोग के बिना इतनी बड़ी घटना का घटित होना संभव ही नहीं है | 
    कई बार तो घटनाओं के प्रत्यक्ष साक्ष्यों का इतना  अभाव होता है कि घटनाओं के कारण न मिलने जैसी  असमंजस की स्थिति के जलवायुपरिवर्तन, स्वरूपपरिवर्तन या हार्टअटैक जैसे नाम रख लिए जाते हैं | जिनसे घटनाओं के बिषय में कुछ भी पता किया जाना संभव नहीं होता है | वस्तुतः ऐसी घटनाओं के घटित होने के कारण प्रत्यक्ष होते नहीं है | परोक्ष कारण निराकार होते हैं | जो निराकार हैं | उन्हें प्रत्यक्ष आँखों या यंत्रों से देखा नहीं जा सकता है | 
      कुल मिलाकर किसी का गंगा की धारा में डूबना हो या बाढ़ भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि घटनाओं से प्रभावित होने के कारण लोगों का नुक्सान होता है किंतु इसमें उन घटनाओं का दोष इसलिए नहीं होता है,क्योंकि उन्हें तो अपने समय पर घटित होना ही है | आग गर्म होती ही है | ऐसे ही बिजली करेंट मारती ही है  | ऐसे ही सभी प्राकृतिक घटनाएँ अपने अपने स्वभाव के अनुसार घटित होती हैं उनसे नसे मनुष्य बच सके तो बचे | गंगा जी में दो सौ किलोमीटर दूर से यदि बाढ़ आ रही हो उसके विषय में पहले से जानकारी हो तो बाढ़ को रोकना  तो संभव है नहीं  अपनी सुरक्षा करने के लिए बाढ़ क्षेत्र से दूर जाया जा सकता है | बस इतना ही मनुष्यों के वश में होता है | बाढ़ यदि आ ही जाएगी तो उस  समय मनुष्यकृत प्रयत्नों से अचानक बचाव नहीं किया जा सकता है | ऐसा ही भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि सभी घटनाओं  के अचानक घटित होने से नुक्सान होता है | उस समय बचाव के लिए तुरंत किए गए प्रयत्नों से समाज को सुरक्षित बचाया जाना  संभव ही नहीं है | 
     ऐसी घटनाओं से  लोगों के प्रभावित होने में उन घटनाओं का दोष न होकर  जो प्रभावित होते हैं | समय उनका अपना ख़राब होता है | इसलिए वे पीड़ित होते हैं | गंगा नदी में कितनी भी बाढ़ हो यदि उससे दूरी बनाए रखी जाए तो डूबने से बचा जा सकता है |कुछ लोग उस धारा में डूबने से बचने का प्रयास करते हुए भी डूबते  देखे  जाते हैं | ये समय का प्रभाव होता है |  
   ऐसा बाढ़ भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि भयंकर घटनाओं के घटित होने पर भी होता है | घटनाएँ अपने अपने समय से घटित होती हैं,किंतु जिसका समय अच्छा होता है | ऐसी घटनाएँ उसके साथ भी घटित होती हैं ,किंतु अपने अच्छे समय के प्रभाव से  स्वस्थ और सुरक्षित बने रहते हैं| 
    ऐसे ही रेल दुर्घटना ,विमान दुर्घटना,अग्निदुर्घटना आतंकी दुर्घटनाओं में भी बहुत लोग एक साथ एक प्रकार से प्रभावित होते हैं ,किंतु कुछ लोगों को खरोंच भी नहीं लगती है तो उसी घटना में प्रभावित कुछ दूसरे लोग मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | इस प्रकार से सभी लोग  अपने अपने अच्छे या बुरे समय के अनुसार प्रभावित होते रहते हैं | 
       जिस प्रकार से गंगा की धारा ने न किसी को लाभ पहुँचाया और न ही हानि !उसे तो समय द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार बहना पड़ रहा होता है |जिन्होंने गंगाजल पीकर जीवन पाया या जिनकी  गंगा जी  की धारा  में डूबने से मृत्यु हुई | यह दोनों प्रकार के लोगों के अपने अपने  अच्छे बुरे समय के अनुसार परिणाम हुआ होता है |गंगा की धारा तो दोनों के लिए समान रूप से ही बह रही थी | 
     बिजली का तार पकड़ने से नुक्सान होता है ,जबकि उसका सदुपयोग करने से बहुत सारी सुख सुविधाएँ मिलती हैं | बिजली की व्यवस्था सुख सुविधाओं के लिए की जाती है,लोग उसका उपयोग भी सुख सुविधाओं  के लिए ही करते हैं,किंतु उनके अपने बुरे समय के प्रभाव से कई बार उन्हें करेंट लग जाता है ,जबकि उन विद्युदुपकरणों को करेंट मारने के उद्देश्य से नहीं बनाया गया था | उन्हें चलाते समय चलाने वालों का भी उद्देश्य करेंट मरवाना नहीं होता है | इसके बाद भी कई बार उन उपकरणों को चलाने वालों के अपने बुरे समय के कारण आवश्यक सावधानियाँ बरतने के बाद भी उन्हें करेंट लग जाता है | वस्तुतः बुरे समय के प्रभाव से उनपर अच्छी चीजों का भी प्रभाव बुरा पड़ रहा होता है | 
      बिजली के उपकरणों की तरह ही बाढ़ भूकंप आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि जितनी भी  घटनाएँ हैं |ऐसी घटनाओं का उद्देश्य भी समाज को नुक्सान पहुँचाना नहीं होगा | सृष्टि में कोई वस्तु या घटना निरर्थक नहीं होती है | इसलिए हो सकता है कि ऐसी घटनाएँ भी किसी न किसी रूप में प्रकृति के संरक्षण में सहायक होती हों | ऐसी घटनाओं में किसे स्वस्थ तथा सुरक्षित रहना है |किसे घायल होना है या किसकी मृत्यु होनी है | ये सब प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने समय के अनुसार घटित होता है | 
     कुलमिलाकर कोरोना महामारी भी  सभी के लिए एक समान ही आई थी , किंतु कुछलोग गंभीरसंक्रमित हुए ,कुछ लोगों की मृत्यु हुई | उन्हीं संक्रमितों के साथ उसी वातावरण में रहने एवं वही सबकुछ खाने पीने वाले बहुत लोग ऐसे भी थे | जो महामारी के समय में संक्रमितों के साथ रहते हुए भी पूरी तरह स्वस्थ सुरक्षित बने रहे उन्हें जुकाम भी नहीं हुआ | जिसका जैसा समय था महामारी का उस पर वैसा प्रभाव पड़ा |
      साधन संपन्न लोग जिन बड़े बड़े अत्याधुनिक अस्पतालों में  चिकित्सा करवाने जाते हैं | उन अस्पतालों में      चिकित्सा के लिए कुछ कमरे बेड आदि बने होते हैं | उन्होंने शवगृह  भी वहीं   बनवा रखे होते हैं | उन्हें पता होता है कि हम किसी को स्वस्थ करने के लिए प्रयत्न कर सकते हैं स्वस्थ नहीं | स्वस्थ तो तभी होगा जब उसका अपना समय स्वस्थ होने लायक होगा | यही कारण है कि अस्पतालों में हर रोगी स्वस्थ होने के लिए ही आता है ,किंतु उनमें से कुछ रोगी स्वस्थ होते हैं | कुछ अस्वस्थ बने रहते हैं | कुछ मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | जो स्वस्थ हो जाते हैं उन्हें उनके घर भेज दिया जाता है | जिनकी मृत्यु हो जाती है उन्हें शव गृह में रख दिया जाता है | जो अस्वस्थ होते हैं उन्हें अस्पतालों में ही रखकर उनकी चिकित्सा शुरू कर दी जाती है | उनके साथ क्या घटित होगा ये चिकित्सकों को भी इसीलिए पता नहीं होता है,क्योंकि  जिस रोगी का जैसा समय चल रहा होगा | उसपर चिकित्सा का वैसा प्रभाव होगा |ये उन्हें पता होता है |  
      
                                        प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा  के प्रयास  

   समय की धारा को रोकने की या उसमें परिवर्तन करने की क्षमता  हम मनुष्यों में नहीं होती है ,क्योंकि 'कालः साक्षादीश्वरः' अर्थात ईश्वर ही समय है | ऐसी घटनाओं में आवश्यक परिवर्तन करने की इच्छा रखने वाले साधक(ईश्वर) से प्रार्थना करते हैं | 
  समय रूपी जो ईश्वर सभी घटनाओं को इस प्रकार से नियंत्रित रखता आ  रहा है कि कोई भी दुर्घटना कितनी भी भयंकर क्यों न घटित हो  किंतु उससे संपूर्ण सृष्टि को क्षति न पहुँचे | यदि ऐसा न होता तो भूकंप की अधिकतम तीव्रता अभी 9 या 10 तक देखी जाती है | कल्पना करके देखा  जाए कि कोई ऐसा भूकंप अचानक आवे जिसकी तीव्रता 18 या 20 या उससे भी अधिक हो तो हम मनुष्य क्या कर लेंगे | हमारे पास ऐसा क्या है जिससे हम ऐसा नहीं होने देंगे या होने से रोक देंगे |कुछ भी तो नहीं है | ऐसे ही  बाढ़  आँधी तूफ़ान चक्रवात  बज्रपात  महामारी आदि और जितनी भी  हिंसक घटनाएँ हैं |उनका वेग और विस्तार आदि जितना अभी होता है | उससे कई गुना अधिक भी तो हो सकता है |उससे कितना भी बड़ा जनसंहार  हो सकता है |  मनुष्यकृत प्रयासों से उस जनसंहार  को  न तो रोका जा सकता है और न ही कम किया जा सकता है | ऐसा इसीलिए नहीं हो पाता है | जिस समय के प्रभाव से ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं | वो समय ईश्वर ही तो है |वो हमारा तथा आप सभी का अपना ही है | ऐसी घटनाओं का वेग विस्तार आदि सब कुछ ईश्वर ही सँभाले हुए है | उसी ईश्वर ने इस सृष्टि की संरचना  की है | इसलिए अपनी बनाई हुई सृष्टि को ईश्वर नष्ट कैसे हो जाने देगा | इसीलिए ऐसी सभी हिंसक घटनाओं में अधिकाँश मनुष्यादि प्राणियों का बचाव होता रहता है | 
      समय की धारा बहती जा रही है जिस घटना के घटित होने का जो समय है वो घटित होती जा रही है | प्राकृतिक घटनाएँ तो अपने अपने समय से घटित होती ही हैं | मनुष्यकृत घटनाएँ भी पूर्वनिर्धारित समय पर ही घटित होती हैं | समय की धारा के साथ ही लोगों के स्वास्थ्य बनते बिगड़ते हैं | संबंध कभी बनते तो कभी बिगड़ते हैं | ऐसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कभी सफलता तो कभी असफलता मिलती है | किसी को कभी कोई पद प्रतिष्ठा मिलती है तो कभी छूटती है | समय की धरा के साथ ये सभी बदलाव होते देखे जाते हैं |  
   चिकित्सालयों में सभी रोगी स्वस्थ होने के लिए आते हैं | रोगियों को स्वस्थ करने के एक समान उद्देश्य से चिकित्सक एक सामान अपनी सेवाएँ  देते रहते हैं | सभी रोगी उन सेवाओं का एक समान लाभ लेते हैं | चिकित्सा के अनुसार परिणाम निकलता तो सभी यतो स्वस्थ होते या अस्वस्थ रहते किंतु परिणाम समय के अनुसार आते  हैं | इसलिए उन रोगियों के अपने अपने समय के अनुसार उन पर चिकित्सा  का  प्रभाव पड़ता है | ऐसा सभीप्रकार की घटनाओं में होता है | महामारी में भी यही हुआ है | 
    इसलिए किसी भी प्राकृतिक या मनुष्यकृतघटना के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए उस  घटना की जगह उसप्रकार के प्राकृतिक समय के विषय में पूर्वानुमान लगाना होता है| उसमें होने वाली संभावित जनहानि  के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए लोगों के अच्छे बुरे समय का ज्ञान होना आवश्यक होता है | 
    


   मनोरंजन 



लोग स्वस्थ  प्रत्येक प्राकृतिक घटना जिनका अपना समय ठीक था वे संक्रमित ही नहीं  


त्रिदोषों का संतुलन प्राकृतिक वातावरण में जब बहुत अधिक बिगड़ने लगता है | उस समय कुछ ऐसी बड़ी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं | जो हमेंशा नहीं दिखाई पड़ती हैं | उसके बाद महामारी तथा उस प्रकार की प्राकृतिकघटनाएँ  साथ साथ घटित होनी  प्रारंभ हो जाती हैं |ऐसे समय लोगों का मनोबल गिर जाता है |इसलिए लोग  अकारण भयभीत एवं उन्मादग्रस्त रहने लगते हैं | ऐसे समय लोग आक्रामक हो उठते हैं | इसलिए समाज में हिंसक घटनाएँ अधिक घटित होते देखी  जाती हैं | मनुष्य समेत समस्त जीव जंतुओं के व्यवहार ऐसी बेचैनी साफ देखी जा सकती है|  
       इनका असंतुलन यदि बहुत अधिक बढ़ जाता है और ऐसा जिसके शरीर में होता है | वो न केवल रोगी होता है,प्रत्युत उसका मनोबल गिरने लगता है | वो अकारण भयभीत रहा करता है | उसे घबड़ाहट होने  लगती है | 
कश्मीर की घटना 


        दूसरा अध्याय 


                                                         

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