महामारी रहस्य
अनुसंधानों की इस संपूर्ण प्रक्रिया से सभी को एक ही आशा रहती है कि इनसे
कुछ ऐसी सफलता मिले जिससे भविष्य संबंधी सभी प्रकार के प्राकृतिक संकटों
से बचाव हो सके ! इसलिए इस विषय पर मंथन अवश्य होना चाहिए कि महामारी से संबंधित विषयों में हमेंशा चलते रहने वाले अनुसंधानों के द्वारा कोरोना महामारी से जूझती जनता को ऐसी क्या मदद पहुँचाई जा सकी है जो ऐसे अनुसंधानों के बिना संभव न थी |
ऐसे संभावित संकटों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए
वैज्ञानिक लोग निरंतर अनुसंधान किया करते हैं | सुचिंतित सरकारें ऐसे
अनुसंधानों के लिए समस्त संसाधन उपलब्ध कराया करती हैं | समाज के द्वारा
टैक्स रूप में जो धनराशि सरकारों को दी जाती है सरकारें वो धन ऐसे
अनुसंधानों पर खर्च करती हैं |इस प्रकार से जनता की भी सहभागिता बनी रहती
है |
जिन प्राकृतिक आपदाओं के विषय में एक ओर अनुसंधान होते रहें और दूसरी ओर
जनधन की हानि भी होती रहे | ऐसा निरंतर दशकों शतकों से चला आ रहा हो तो
प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ऐसे अनुसंधानों को करने करवाने का लाभ क्या
है ये न किए जाएँ तो नुक़सान क्या होगा और करने से लाभ क्या होता है | यदि
करने न करने से कोई लाभ हानि ही न हो तो इन पर आर्थिक व्यय करने का औचित्य
क्या है |
वैसे भी पारदर्शिता पसंद जिस समाज का संकल्प ही पाई पाई और पल पल का
हिसाब देने का रहा हो वहाँ इतनी भारी भरकम धनराशि ऐसे अनुसंधानों पर खर्च
की जाए जिनका औचित्य सिद्ध करने में कठिनाई होती हो तो ऐसे अनुसंधानों के
संचालन से लाभ क्या है ? सरकारों को टैक्स रूप में प्राप्त जनता के
खून पसीने से पवित्र कमाई के प्रत्येक अंश का सदुपयोग करना ही शासकों का
कर्तव्य है |इस पवित्र उद्देश्य से सदियों से चलाए जा रहे वैज्ञानिक
अनुसंधानों से ऐसी कितनी मदद मिल सकी है जिससे प्राकृतिक आपदाओं या
महामारियों से जूझती जनता को सुरक्षित बचाया जा सका हो या इसमें कुछ मदद
मिली हो |
बिचारणीय विषय है कि महामारी या स्वास्थ्य सेवाओं के विषय में वैज्ञानिकलोग लगातार अनुसंधान किया ही करते हैं इसके बाद भी महामारी जैसी इतनी बड़ी आपदा से समाज को स्वयं ही सीधे
जूझना पड़ा है | इसलिए ये प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि अभी तक किए जा रहे वैज्ञानिक अनुसंधानों से ऐसी
क्या मदद मिल सकी है जिससे महामारी पीड़ित समाज को कुछ लाभ पहुँचाया जा सका हो |
महामारी संबंधी अनुसंधानों का योगदान कितना ! जनता की दृष्टि में -
वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा आजतक यह नहीं पता
लगाया जा सका कि महामारी पैदा होने का कारण क्या था !ये मनुष्यकृत है या
प्राकृतिक है !महामारी की लहरें आने और जाने का कारण क्या है
| ये मनुष्यों
के द्वारा की जाने वाली किसी गलती से लहरें आती हैं या फिर किसी प्राकृतिक
कारण से आती हैं | महामारी की लहरें आने के लिए अक्सर कोविड नियमों के
पालन में लापरवाही को जिम्मेदार माना जाता रहा है |यदि ऐसा है तो महामारी
आने के लिए जिम्मेदार क्या है वे कारण भी खोजे जाने चाहिए | वैसे भी ऐसा तो
नहीं है कि लोग अब हमेंशा कोविडनियमों का पालन करते ही रहेंगे !
इसीप्रकार से लहरों के समाप्त होने का कारण क्या होता
है ये अपने आपसे समाप्त होती हैं या फिर मनुष्यकृत किन्हीं प्रयासों से
समाप्त होती हैं | इसके अतिरिक्त महामारी पैदा कैसे हुई और समाप्त कैसे होगी !कितने वर्षों तक अभी और चलेगी ! यह मनुष्यकृत प्रयासों से समाप्त होगी या अपने आपसे
समाप्त होगी यदि अपने आपसे ही समाप्त होनी है तो कोविड नियमों की भूमिका क्या है ?
समाज का एक वर्ग विशेष जो किसी
मज़बूरी या प्रमादवश कोविडनियमों का पालन नहीं कर सका उसका दुष्प्रभाव वहाँ
भी वैसा नहीं दिखाई पड़ा जैसा कि कहा जा रहा था | यदि महामारी को मनुष्यकृत
प्रयासों से ही समाप्त होना था तो भारत में 17 सितंबर 2020 को उच्च स्तर
पर पहुँचकर बिना किसी मनुष्यकृत प्रयास के अचानक संक्रमितों की संख्या घटने
लगने का ऐसा वैज्ञानिक कारण क्या था !इसका तर्कपूर्ण उत्तर खोजा जाना चाहिए |17 सितंबर 2020 तक तो वैक्सीन भी नहीं बनी थी !इसके बाद भी संक्रमितों की संख्या कम होते जाने का तर्कपूर्ण वैज्ञानिक कारण क्या था ?
इसी प्रकार से कोरोना संक्रमण बढ़ने के लिए वायु प्रदूषण बढ़ने को भी जिम्मेदार बताया जाता रहा था, परंतु अक्टूबर नवंबर 2020 में वायु प्रदूषण बहुत बढ़ा था फिर भी संक्रमितों की संख्या दिनों दिन कम होती जा रही थी ! ऐसे ही 2021 के फरवरी मार्च में वायुप्रदूषण तो दिनोंदिन कम
होता जा रहा था किंतु कोरोना संक्रमण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था | इसका तर्कपूर्ण वैज्ञानिक कारण खोजा जाना अभी तक अवशेष है | ऐसे बहुत सारे आवश्यक प्रश्नों के
संतोषजनक निश्चित उत्तर उस समाज को अभी तक दिए नहीं जा सके हैं |जिनके लिए इस प्रकार के अनुसंधान किए जाते हैं |
इसी प्रकार से महामारी जैसे इतने बड़े संकट के आने और जाने के विषय में
कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका है | महामारी संबंधी लहरों के आने और
जाने के विषय में कुछ तीर तुक्कों को छोड़कर ऐसा कोई सही पूर्वानुमान नहीं
लगाया जा सका है |जो तर्कपूर्ण वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता हो |
वैज्ञानिक
अनुसंधानकार्यों की दृष्टि से यह चिंता की बात है |
मौसम के आधार पर महामारी का अध्ययन कितना प्रभावी !
महामारी आने या उसकी लहरें आने और जाने का कारण कभी तापमान के बढ़ने या
घटने को माना जाता रहा है तो कभी वायु प्रदूषण बढ़ने घटने को बताया जाता है कभी
वर्षा होने या सूखा पड़ने को बताया जाता है | ये सारी घटनाएँ मौसम से
संबंधित हैं |
इसलिए महामारी को समझने के लिए मौसम संबंधी अध्ययनों
अनुसंधानों की आवश्यकता दिखाई पड़ती है | मौसम संबंधी वैज्ञानिक अनुसंधानों की
अपनी यह स्थिति है कि पिछले कुछ दशकों में मौसम संबंधी जितनी बड़ी घटनाएँ
घटित हुई हैं उनमें से प्रायः किसी भी घटना के विषय में कभी कोई सही
अनुमान या पूर्वानुमान नहीं लगाए जा सका है | जो लगाए भी गए वे गलत
निकलते रहे हैं |ऐसी परिस्थिति में जब मौसम संबंधी वैज्ञानिक अनुसंधानों से जब मौसम को ही समझना संभव नहीं हो पाया है तो उन्हीं मौसम संबंधी अध्ययनों अनुसंधानों के आधार पर महामारी को कैसे समझा जा सकता है |
मौसम के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि न लगा पाने या गलत
निकल जाने का कारण मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा समुद्र में घटित होने वाली
अलनीनो लानिना जैसी घटनाओं को माना जाता है | अलनीनो लानिना जैसी घटनाओं के घटित होने का कारण 'जलवायुपरिवर्तन' को माना जाता है | 'जलवायुपरिवर्तन' के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है जबकि जलवायुपरिवर्तनजनित
मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान लगाए बिना मौसम
संबंधी घटनाओं के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं
है |ऐसी स्थिति में मौसम विभाग प्रतिवर्ष मौसम संबंधी पूर्वानुमान किस आधार
पर बताया करता है |
मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में कोई भी अनुमान
पूर्वानुमान आदि सही सही न पता लग पाने का कारण यदि जलवायु परिवर्तन है तो जलवायु परिवर्तन होने का कारण मनुष्यकृत
है या प्राकृतिक ? इसके विषय में कोई अनुमान
पूर्वानुमान आदि कैसे पता लग सकता है ये किसी को पता नहीं है |
इसका मतलब यह हुआ कि जलवायुपरिवर्तन के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि नहीं लगाया जा सकता है और जलवायुपरिवर्तन के विषय में पता न लग पाने के कारण अलनीनो लानिना जैसी घटनाओं को नहीं समझा जा सकता है और अलनीनो लानिना जैसी घटनाओं को न समझ पाने के कारण मौसम संबंधी घटनाओं को समझना संभव नहीं है |मौसम संबंधी घटनाओं को समझे बिना महामारी जैसी घटनाओं को कैसे समझा जा सकता है |
महामारी को ठीक ठीक समझे बिना महामारी के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे लगाया जा सकता है |संक्रमितों में पाए जाने वाले रोगों की प्रकृति को कैसे पहचाना जा
सकता है | रोगों की प्रकृति को समझे बिना उनसे मुक्ति दिलाने की औषधियों का
निर्माण कैसे किया जा सकता है |औषधियों के बिना महामारी संक्रमितों की
चिकित्सा कैसे की जा सकती है | ऐसी शंकाएँ समाज में व्याप्त हैं |
महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए किसी विश्वसनीय चिकित्सा व्यवस्था के अभाव में यही पता लगाया जाना चाहिए कि यह मनुष्यकृत प्रयासों से समाप्त होगी भी या नहीं नहीं ?यदि महामारी अपने आपसे
ही समाप्त होनी है तो यही पता लगाया जाना चाहिए कि ये कितने महीनों वर्षों तक अभी और चलेगी !
कुलमिलाकर
महामारी के विषय में यदि अनुमान पूर्वानुमान आदि नहीं लगाए जा सकते हैं|
रोग की प्रकृति को नहीं समझा जा सकता है तो चिकित्सा किया
जाना कैसे संभव है |
विशेष बात यह है कि महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि भी
लगाए जा रहे थे | लहरें आने और जाने के विषय में भी पूर्वानुमान बताए जा
रहे थे तथा बचाव के लिए मॉस्क धारण,दोगजदूरी,लॉकडाउन जैसे तरह तरह तरह के
उपाय भी केवल बताए जा रहे थे अपितु संक्रमितों की चिकित्सा भी की जा रही थी | उनमें से प्रभावी सच क्या
कितना निकला उससे महामारी जैसे बड़े संकट से सुरक्षा किया जाना कितना संभव
हुआ है |यह सब स्वयं में शोध का विषय है |
चिंता होनी स्वाभाविक ही है !
कोई
आक्रमणकारी किसी देश पर अचानक आक्रमण कर दे तो उसका सामना करना तभी संभव
है जब संभावित सभी प्रकार के हमलों की तैयारियाँ पहले से करके रखी गई
हों,ऐसा किया जाना तभी संभव है जब ऐसे किसी आक्रमण की आहट पहले से लग गई हो
उसके अनुशार तैयारियाँ पहले से करके रख ली गई हों ! किसी ऐसे आक्रमण की
आहट पहले से पता लगना भी तभी संभव है, जब इसप्रकार की सतर्कता पहले से
निरंतर बरती जाती रही हो, जिससे ऐसे आक्रमणों के विषय में पहले से पता
लगाया जाना संभव हो ,या
फिर गुप्त सूत्रों के द्वारा ऐसी किसी घटना के विषय में पहले से कोई
जानकारी जुटाई
जा सकी हो !
कुल मिलाकर जिस किसी भी प्रकार से पहले से करके रखी गई तैयारियों के
बलपर ही अचानक आक्रमणकारी शत्रु का सामना किया जाना संभव है | इसके
अतिरिक्त बचाव के लिए उपयुक्त सावधानी बरतना या प्रभावी माने जाने वाले
आवश्यक संसाधनों को पर्याप्त मात्रा में जुटाया जाना तुरंत संभव नहीं होता है | ऐसे समय पहले से की गई तैयारियों के बल पर ही उस आक्रांता को खदेड़ कर अपना बचाव किया जा सकता है |
इसीप्रकार से प्रकृति एवं जीवन से संबंधित सभीप्रकार के संकटों से बचाव
के लिए आवश्यक है कि तैयारियाँ पहले से करके रख ली जाएँ,किंतु ऐसा किया
जाना तभी संभव है जब उन संकटों के विषय में पहले से पूर्वानुमान
प्राप्त कर लिए गए हों !वे बहुत महत्त्व रखते हैं जिस किसी भी प्रकार से
ऐसा किया जाना संभव हो वो सारे उपाय आगे से आगे करके रखे जाने चाहिए तभी
उनकी सार्थकता सिद्ध हो सके |
महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा,
वायुप्रदूषण,भूकंप जैसी
प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार आधारभूत कारणों की खोज
किए बिना उनसे बचाव के लिए न तो उपाय खोजे जा सकते हैं और न ही उनके निवारण
के लिए चिकित्सा आदि परिणामप्रद व्यवहार अपनाए जा सकते हैं |
ये चिंता की बात है कि महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा,
वायुप्रदूषण,भूकंप जैसी
प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने के बाद ही इनके विषय में पता लग पाता है कि ये
घटनाएँ घटित हो गई हैं | इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि प्राकृतिक आपदाओं
के घटित होने पर जो नुक्सान होना होता है वो तो पहले झटके के साथ ही हो
जाता है | उसमें होने वाले नुकसान से समाज को सुरक्षित बचाए रखना
वैज्ञानिकों की भूमिका है | ऐसी घटनाओं के विषय में पहले से पूर्वानुमान
लगाकर एवं प्रभावी उपाय खोजकर समाज की सुरक्षा की जाए यही तो वैज्ञानिक
अनुसंधानकर्ताओं से समाज की अपेक्षा है |
कुलमिलाकर कोई घटना घटित होने से पहले सीधे तौर पर वैज्ञानिकों की भूमिका
रहती है जिसे यदि ठीक ढंग से निर्वाह किया जाए तो आपदा प्रबंधनों के लिए
अधिक काम बचता ही नहीं है और अधिक जनधन हानि भी नहीं होती है | वैज्ञानिकों
के द्वारा बचाव के लिए प्रयत्न किए जाने के बाद भी समाज का जो वर्ग किसी
प्राकृतिक आपदा की चपेट में आ ही गया हो,केवल उसीके बचाव हेतु आपदा
प्रबंधनों की भूमिका रहती है |इसलिए घटना घटित होने के बाद आपदा प्रबंधन के
लोग बचाव कार्य में लग जाते हैं |
वर्तमान समय में प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों की
भूमिका ही क्या बचती है |भूकंप आता है उससे जनधन की हानि होती है | मृतकों
की अंत क्रिया कर दी जाती है और घायलों को चिकित्सा उपलब्ध करवा दी जाती है
| ये कार्य तो आपदा प्रबंधन का है इसमें भूकंप वैज्ञानिकों की भूमिका क्या
है ?ऐसा प्रायः सभी प्राकृतिक आपदाओं के समय में होता है जब उनसे संबंधित
वैज्ञानिक अनुसंधानों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका बचती ही नहीं है |
कोरोना महामारी को ही लें तो कारण बार बार बदले जाते
रहे, बहुत सारी प्राकृतिक घटनाओं को महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने के लिए काल्पनिक रूप से जिम्मेदार बताया जाता रहा है |
महामारी एक ओर चलती रही दूसरी ओर लोग संक्रमित होते और मरते रहे |
वैज्ञानिक अनुसंधान भी चलते
रहे जिनकी महामारी विषयक अनुमान पूर्वानुमान लगाने में कोई सार्थक
भूमिका सिद्ध नहीं हो सकी जिससे महामारी पीड़ितों को कुछ मदद मिल सकी हो |
महामारी आने के विषय में जनता को पहले से कोई सही
पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका कि निकट भविष्य में महामारी जैसी इतनी बड़ी
घटना घटित होने वाली है | लोग संक्रमित होने या मरने लगे तब
महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाने का कोई औचित्य बचता ही नहीं था |
चिकित्सा सिद्धांत के अनुशार रोग का निश्चित कारण पता लग जाने के बाद ही
उस पर अंकुश लगाने के प्रयास किए जा सकते थे जिससे महामारी स्वाभाविक रूप
से समाप्त होने लगे | ऐसे ही अनुसंधानों के द्वारा महामारीजनित रोगों के
लक्षण और स्वाभाव को पहचाना जा सके तभी तो चिकित्सा आदि के द्वारा उस रोग
का निवारण किया जाना संभव हो सकता है |
कुलमिलाकर महामारी जब तक रही
तब तक कोई ऐसा कारण निश्चित नहीं किया जा सका जिसे महामारी पैदा होने के
लिए विश्वासपूर्वक जिम्मेदार ठहराया जा सका हो और वो बाद में सही भी निकला
हो | महामारीजनित रोग के स्वभाव को भी नहीं समझा जा सका ! महारोग के
वास्तविक लक्षणों को भी नहीं पहचाना जा सका |
सही नहीं निकले महामारी विषयक वैज्ञानिक अनुमान !
वैज्ञानिक अनुसंधान समाज को सुख सुविधाएँ पहुँचाने के लिए किए जाते हैं इसके
साथ ही साथ महामारी भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं से जनता की सुरक्षा
सुनिश्चित करना भी उनका लक्ष्य होता है |ऐसे अनुसंधानों के निरंतर चलते
रहने पर भी जनता को महामारी जैसे इतने भयंकर संकटकाल से गुजरना पड़ा जिस
संकट से बचाव का उद्देश्य लेकर आजतक अनुसंधान किए जाते रहे हैं |ये चिंता
की बात है | ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों से समाज को कोई ऐसी मदद नहीं पहुँचाई जा सकी जिससे समाज की महामारीजनित कठिनाइयाँ कुछ तो कम हुई होतीं |
महामारी जैसे बड़े संकट से जूझती डरी सहमी जनता जब जिम्मेदार लोगों की
बातें सुनती थी कि "हम कोरोना को पराजित करेंगे","हम महामारी पर विजय
प्राप्त कर लेंगे" "हम महामारी को पछाड़ेंगे" | ऐसी बातें सुनकर संकट सहने
की हिम्मत बँधती थी कि
हमारे वैज्ञानिकों ने जरूर ऐसी कोई प्रक्रिया खोज र\खी होगी जिससे
महामारी पर विजय प्राप्त करना संभव होगा | ये तो बाद में पता लगा कि
महमारी के कारण लोग यदि संक्रमित हुए हैं या मृत्यु को प्राप्त हुए हैं तो
जो संक्रमित होने से बच गए या मृत्यु होने से बच गए इसके लिए उन्हें कोई
वैज्ञानिक कवच नहीं मिला हुआ था अपितु उनका बचाव भी महामारी की ही दया कृपा
से हुआ है या उनका समय अच्छा था या भाग्य ठीक था या फिर ईश्वर की अनुकंपा
से बचाव हो गया है !
कई बार कोई लहर जब स्वतः समाप्त होने लगती तो कहा जाने लगता था -"हमने
कोरोना को पछाड़ दिया है या जीत लिया है या कोरोना भाग रहा है |"आदि आदि !
यह सब देख सुन कर लगता था कि वैज्ञानिकों ने वास्तव में कोरोना को पराजित
कर दिया है , संक्रमितों की संख्या दिनों दिन कम होना वैज्ञानिकों के
द्वारा किए गए उन्हीं प्रयासों के परिणाम हैं | लगता था कि यदि हमारे
वैज्ञानिकगण महामारी पर अंकुश लगाने में सफल हो ही गए हैं तो महामारी से
समाज को भयभीत नहीं होना पड़ेगा | इसके बाद महामारी की कोई नई लहर जब फिर
शुरू होने लगती तो वही वैज्ञानिक ऐसा होने का कारण कोविड नियमों के पालन
में लापरवाही बताने लगते | इस प्रकार से बिना कुछ किए धरे ही यश लूटने की होड़ सी लगी हुई थी |
कुल मिलाकर अतीत की महामारियों से अभी तक क्या कुछ सीखा गया है या कोरोना महामारी से भविष्य के लिए क्या कुछ सीखा जाएगा |ये तो वो समय ही बताएगा |
कुल मिलाकर महामारी के विषय में अनुसंधानकर्ताओं के द्वारा आज तक ऐसे कोई
तर्कसंगत प्रमाण नहीं प्रस्तुत किए जा सके जिससे यह सिद्ध होता हो कि
महामारी शुरू होने के कारण क्या हैं और महामारी की लहरें बार बार आने और जाने के कारण क्या हैं ?
महामारी से भविष्य संबंधी सुरक्षा की तैयारी करने के लिए इस सच्चाई को स्वीकार
किया जाना न केवल आवश्यक है अपितु अपरिहार्य भी हो गया है कि महामारी को
समझना वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति के बश की बात नहीं है | ये सब देख
सुनकर तो कभी कभी ऐसा भी लगने लगता है कि महामारी के विषय में अनुसंधान
करने लायक कोई ऐसा विज्ञान ही न हो जिसके आधार पर महामारी जैसे संकटों के
विषय में अनुसंधान किया जाना संभव होता | यदि ऐसा न होता तो महामारी से
जूझती जनता को अनुसंधानों से कुछ तो मदद पहुँचाई जा सकी होती |
घटनाओं के वास्तविक कारणों की खोज करना सबसे अधिक आवश्यक है !
संसार
की प्रत्येक वस्तु में हो रहे परिवर्तनों की तरह ही महामारी का स्वरूप
परिवर्तन होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ये तो महामारी की स्वभावजनित प्राकृतिक प्रक्रिया हो सकती है
जिस परिवर्तन को रोका जाना संभव नहीं है | इसे रोकने को लेकर किसी को वैज्ञानिक
अनुसंधानों से कोई शिकायत भी नहीं है और न ही उनसे ऐसी कोई अपेक्षा ही की
जा सकती है ,किंतु इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि महामारी कब आती है
!किन कारणों से आती है !किन परिस्थितियों में आती है ! कितने समय के अंतराल में आती है !उसका
विस्तार क्षेत्र कितना होता है !उसमें अंतर्गम्यता कितनी होती है | उसका प्रसार
माध्यम क्या होता है!उस पर किस मौसम का कैसा प्रभाव पड़ता है !तापमान बढ़ने
या घटने का प्रभाव कैसा पड़ता है !वायु प्रदूषण बढ़ने और घटने का कैसा प्रभाव
पड़ता है !महामारी पैदा होने और समाप्त होने के कारण क्या होते हैं
!महामारी की लहरें आने और जाने के क्या कारण होते हैं आदि वैज्ञानिक विधि से खोजे जाने चाहिए !
महामारियाँ तो सदियों सहस्राब्दियों से आती देखी जा रही हैं !इन पर अनुसंधान
भी हर काल खंड में होते ही रहे होंगे ,किंतु महामारियों के विषय में
इसप्रकार के अत्यंत आवश्यक प्रश्नों के उत्तर अभी तक नहीं खोजे जा सके हैं |
इन उत्तरों के अभाव में महामारी के प्रकोप से समाज को हैरान परेशान देखकर
सरकारें बचाव के लिए कुछ प्रयत्न करना चाहती हैं | इसके लिए उन्हें
वैज्ञानिकों की सलाह पर कोविड नियमों को कड़ाई से लागू करने के लिए बाध्य
होना पड़ता है | ऐसे नियमों से यदि बचाव होता है तब तो ठीक है किंतु एक प्रतिशत यदि ऐसा
न होता हो तो अनावश्यक रूप से इन्हें लागू करने का औचित्य ही क्या बनता
है| जनता एक ओर महामारी से पीड़ित होती है तो दूसरी ओर ऐसे प्रतिबंधों से
परेशानी उठानी पड़ती है | ऐसा इसलिए भी सोचना पड़ता है क्योंकि कई बार ऐसे
कोविड नियमों का पालन न करने वाले देश प्रदेश जिले समुदाय समाज पर भी कोई विशेष
दुष्प्रभाव पड़ते नहीं देखा जाता है |
महामारी पैदा होने और समाप्त होने या उसकी लहरों के आने और जाने के
क्या कारण होते हैं |ये यदि पता लगा लिया जाता है तो उपायों का निर्णय करने
में और औषधियों का निर्माण करने में या चिकित्सा करने में सुविधा हो जाती
है | इसके विषय में पता न होने पर कई बार हम अपने प्रयत्नों को उन घटनाओं
के साथ जोड़ लिया करते हैं | जहाँ अपने प्रयत्नों की कोई भूमिका ही नहीं
होती है फिर भी स्वाभाविक रूप से घटित हो रही घटनाओं को भ्रम वश हम अपने
द्वारा किए गए प्रयत्नों के परिणाम मान लिया करते हैं |
जिस प्रकार से ऋतुओं का क्रम यदि पता न होता तो हम ऐसा भी मान सकते थे
कि सर्दी के मौसम में सर्दी से राहत के लिए लोग जो आग के अलाव जलाते रहे उससे जो ऊष्मा
पैदा होती रही ! वही संग्रहीत होती रहती है | ग्रीष्म ऋतु में होने वाली गर्मी उसी शीतऋतु में संचित ऊष्मा का परिणाम होता है |
इसलिए समाज को ग्रीष्मऋतु की गर्मी से बचाने के लिए सर्दी में अलाव जलाने
पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए | उपायों के नाम पर ऐसा किए जाने से
अनावश्यक रूप से लोगों परेशान करना होता है, जबकि कई प्राकृतिक
प्रतिकूलताओं को रोकने के इसी प्रकार के निरर्थक आचरण अपनाने के लिए बाध्य किया जाता रहा है |
कई बार घटनाओं के विषय में वास्तविक जानकारी मिल जाने से भी लोगों को
बहुत राहत मिल जाती है | कोई व्यक्ति जीवन में पहली बार रात्रि का सामना कर रहा
हो,अँधेरे से हैरान परेशान उस व्यक्ति को यदि पता चल जाए कि कुछ घंटों में
सबेरा होते ही अँधेरा समाप्त हो जाएगा |इस आशा से उस व्यक्ति के लिए प्रातः काल का
इंतजार करना आसान हो जाएगा !
ऐसे किसी व्यक्ति को यदि सच्चाई न पता हो और उससे कह
दिया जाए कि यदि अँधेरे से मुक्ति चाहते हो तो आग जलानी पड़ेगी !जितनी तेज
आग जलेगी उतनी जल्दी अँधेरा भागेगा ! यह सुनकर वह व्यक्ति आग जलाने लगेगा कुछ
घंटों के बाद स्वतः सबेरा हो ही जाएगा !जिसे वह अपने आग जलाने वाले कर्म का
परिणाम मान ले तो ये उसकी गलती होगी ,फिर भी भ्रमवश अगले दिन से से वह रात में जलाने के लिए जंगल काट काट कर
लकड़ियाँ इकट्ठी करनी शुरू कर देगा उसकी देखा दूनी कुछ दूसरे लोग भी ऐसा
करना शुरू कर देंगे !इससे जंगल काट काट कर जला दिए जाएँगे जबकि सबेरा आग
जलाने से नहीं अपितु अपने प्राकृतिक समय क्रम से होगा ! यह क्रम पता लगने तक तो
जंगलों की दुर्दशा होती ही रहेगी ! प्राकृतिक विषयों में ऐसी गलतियाँ अनेकों बार की जाती रही हैं |
इसी प्रकार से महामारी संबंधी लहरें आने के लिए कोविड नियमों के पालन
में लापरवाही को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है | यदि ऐसा होता तब तो
महामारी आने के लिए कोविड नियमों का पालन न किया जाना ही जिम्मेदार माना
जाएगा क्या ? यदि इसे भी सच मान लिया जाए तो आखिर कब तक ऐसे प्रतिबंधों का
पालन किया जाएगा !कभी न कभी तो इन्हें रोकना ही पड़ेगा और जब जब ये रोके
जाएँगे तब तब क्या महामारी संबंधी लहरें इसी प्रकार से आनी शुरू हो जाएँगी !किंतु ये सच नहीं है
|
कुलमिलाकर प्राकृतिक घटनाओं के वास्तविक कारण खोजने में जब तक सफलता
नहीं मिल जाती है तब तक सभी घटनाओं से पीड़ित लोगों को इसीप्रकार का भटकाव
झेलना पड़ता है|जलवायु परिवर्तन,भूकंप,वायु प्रदूषण,मौसम एवं महामारी जैसी
घटनाओं के समय वास्तविक कारणों की जानकारी के अभाव में बहुत कुछ वह झेलना
पड़ता है जिसकी आवश्यकता उस समय नहीं होती है | कई
बार कारण खोज तो लिए जाते हैं किंतु वे सच नहीं होते ! जिनसे उन पर आधारित
अनुसंधानों के लिए लगाया गया समय श्रम साधन और धन निरर्थक चला जाता है |
इससे भ्रमित होकर कई गलत मानक चुन लिए जाते हैं जिनका घटनाओं के साथ कोई
संबंध न सिद्ध होने पर वे ख़ारिज तो हो जाते हैं किंतु उन्हें खोजने के लिए लगाया गया समय श्रम साधन और धन तो निरर्थक चला ही जाता है |
अनुसंधानों के द्वारा पहले अनुमान लगाया गया कि सर्दी के समय कोरोना
महामारी बढ़ेगी किंतु ऐसा नहीं हुआ और महामारी दिनोंदिन कमजोर होती चली गई |
इसीप्रकार से गर्मी में महामारी कमजोर पड़ने की बात कही गई थी किंतु अप्रैल
2021 में महामारी दिनोंदिन जोर पकड़ती जा रही थी |
इस प्रकार महामारी के साथ साथ ही आधार विहीन गलत अनुमानों
पूर्वानुमानों से उत्पन्न पीड़ा भी समाज को सहनी पड़ी है | प्राकृतिक
अनुसंधानों के क्षेत्र में ऐसा अनेकों बार देखने को मिलता रहा है |
अनुसंधानों का आधार वैज्ञानिक होना चाहिए !
कोरोना महामारी जैसा इतना बड़ा संकट धीरे धीरे बीतता जा रहा है ,बीत ही
जाएगा, अभी नहीं तो कुछ समय और लेकर बीत जाएगा किंतु यह संकट कुछ ऐसे सवाल छोड़कर
अवश्य जाएगा, जिनके उत्तर खोजे जाना आवश्यक है |
कोरोना महामारी में बहुत बड़ी
जन धन की हानि हुई है जिसे सारे समाज ने सहा है |बहुतों ने बहुत कुछ खोकर
असह्य बेदना सहते हुए इस समय को पार किया है | कुल मिलाकर जितना जो कुछ
होना था वह तो हो ही चुका है जो थोड़ा बहुत बचा है वह भी हो ही जाएगा | उसे
रोक पाना या उस पर अंकुश लगाया जाना मनुष्य के बश की बात भी नहीं लगती है |
यदि अभी तक महामारी को समझा ही नहीं जा सका है तो वर्तमान वैज्ञानिक परिस्थितियों
में भविष्य के लिए ऐसी कोई आशा नहीं की जानी चाहिए कि महामारी पर
मनुष्यकृत प्रयासों से कोई अंकुश लगाया जा सकेगा |इसके लिए अब कुछ विशेष
करना पड़ेगा जिसके लिए वास्तविक अनुसंधानों की आवश्यकता है |
महामारी के समय जहाँ एक ओर जनता को
अपने प्राणों से खेलना पड़ रहा था वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिकों को महामारी
समझ में नहीं आ रही थी | महामारी के विषय में ठीक ठीक प्रकार से अनुमान
पूर्वानुमान न लगा पाना भी एक बड़ा कारण रहा था | वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के विषय में जिस जिस प्रकार के वक्तव्य
दिए जाते रहे और वे जितनी अधिक मात्रा में गलत निकलते रहे हैं वह चिंता पैदा करता है | यह पता
लगाना कठिन हो रहा था कि महामारी जैसे संकट को समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों का सहारा लिया जाना कितना सुरक्षित रहेगा |
ऐसे कठिन समय में महामारी के विषय में बोली जाने वाली वैज्ञानिकों की
बातों में वैज्ञानिक दृढ़ता दूर दूर तक नहीं दिखाई देती थी | उनके द्वारा
कही
जाने वाली बातों में वैज्ञानिकतर्कों का नितांत अभाव रहता था ,पारदर्शिता
की
कमी थी |वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के विषय में लगाए जाने वाले
अनुमान पूर्वानुमान और आम जनता के द्वारा लगाए जाने वाले अंदाजे एक जैसे
लगते थे, क्योंकि वैज्ञानिक आधार दोनों का ही नहीं था | दोनों प्रकार के
लोग अपने अपने तीर तुक्के लगाए जा रहे थे | इसलिए सच्चाई दोनों
में ही नहीं झलकती थी | ऐसी बातें बोलने में वैज्ञानिक अनुसंधानों की क्या
भूमिका थी | ये किसी को पता ही नहीं लग पा रहा था | वैज्ञानिक
अनुसंधानों के नाम पर बोली जाने वाली बातों से समाज को क्या पता लग पाता था तथा कैसे क्या और कितनी मदद मिल पाती थी | ये स्वयं
में अनुसंधान का विषय रहा है कि ऐसे अनुसंधानों की आवश्यकता कितनी थी |
महामारी के विषय में वैज्ञानिकों की भूमिका !
महामारी जैसे इतने
बड़े संकट से जूझती जनता को अपने
वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त मदद की जब सबसे अधिक आवश्यकता थी तब इतने बड़े असमंजस की स्थिति में जीना पड़ रहा था | पूर्वानुमानों के नाम पर वैज्ञानिक
लोग एक ही लहर के विषय में कुछ कुछ दिनों के अंतराल में कई बार भिन्न
भिन्न प्रकार के वक्तव्य दे दिया करते थे उन सब में पर्याप्त अंतर हुआ करता
था | वैज्ञानिकों के ऐसे
भ्रामक बयानों से तो अनुसंधानों का उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है | उनसे
जनता के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता था कि वैज्ञानिक लोग किस विषय में
कहना क्या चाह रहे हैं और समाज को उनके कथनों का अभिप्राय क्या समझना चाहिए
| वैज्ञानिकों के
पास ऐसे कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं होते थे जिनसे जनता किसी निष्कर्ष पर
पहुँच पाती |ऐसी परस्पर विरोधी बातों से जनता क्या
अभिप्राय निकाले जनता के सामने यह सबसे बड़ी समस्या थी |
कोरोना
काल में यह अक्सर देखा जाता रहा है कि सभी प्राकृतिक घटनाओं की तरह ही
महामारी संबंधी अनुसंधान कर्ताओं के भी ग्रुप से बने हुए थे | जो महामारी के प्रत्येक विषय पर एक एक पक्ष ले लिया करते थे | एक पक्ष एक बात बोलता था तो दूसरा
पक्ष कुछ दूसरा बोलता था और तीसरा पक्ष उन दोनों से अलग हटकर एक नई बात बोलने
का प्रयास करता था जबकि घटनाएँ उन तीनों से अलग हट कर घटित होती रही हैं |इन वक्तव्यों में कभी
कभी थोड़ी बहुत मत भिन्नता होती थी तथा कई बार वैज्ञानिकों के वक्तव्य एक
दूसरे के बिल्कुल बिपरीत चले जाया करते थे ,थोड़ी बहुत भिन्नता होने पर तो
कोई न कोई निष्कर्ष निकाल लिया जाता था किंतु इतना अंतर कि किसी घटना के
विषय में वैज्ञानिकों के बिचार एक दूसरे के बिल्कुल विरुद्ध आने लगें तब उन
कथनों का निष्कर्ष निकालना समाज के लिए कठिन हो जाता था कि वैज्ञानिक लोग
इस विषय पर कहना क्या चाह रहे हैं | समाज
तो सभी वैज्ञानिकों का सम्मान करता है,सभी की बातों पर विश्वास करता है, उस
विश्वास को सुरक्षित बनाए रखना भी जनता के साथ साथ उनकी अपनी भी
जिम्मेदारी है |
इससे तो उचित यह होता कि दोनों
पक्ष के वैज्ञानिकों को पहले आपस में मिल बैठकर एक दूसरे से अनुसंधान जनित
जानकारी का आदान प्रदान करके कोई एक निष्कर्ष निकाल लेना चाहिए था | उसमें समाज
को जो जानकारी देनी आवश्यक थी वही मीडिया को परोसी जाती और जो बात बोली
जाती उसी पर कायम रहा जाता |
वही बात मीडिया के माध्यम से समाज को बता दी जाती | इससे भ्रम की स्थिति
नहीं बनती | जनता भी उसी बात को सच मानकर विश्वास कर लिया करती |भले ही वो
बात में गलत निकल जाती |
दोनों पक्ष के वैज्ञानिकों को अपने अपने उन अनुसंधानों को भी मीडिया के
माध्यम से सार्वजनिक करना चाहिए जिनके आधार पर वे ऐसे निष्कर्षों पर पहुँच
रहे थे कि कोरोना महामारी प्राकृतिक है या मनुष्यकृत | दोनों पक्षों में किस पक्ष के तथ्य कितने तर्कसंगत हैं एवं उन तथ्यों में कहाँ कितनी वैज्ञानिकता है | यह भी समाज को पता लगना चाहिए |
विगत काफी समय से ऐसा देखा जाता रहा है कि जिन प्राकृतिक घटनाओं के
अनुमान पूर्वानुमान आदि नहीं लगा पाए जाते हैं या वैज्ञानिकों के द्वारा
लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत निकल जाते हैं | उनसे समाज का ध्यान
भटकाने के लिए "जलवायुपरिवर्तन" जैसी कोई न कोई ऐसी अवैज्ञानिक कहानी गढ़कर
जनता के मन में भविष्य संबंधी कोई महाभय पैदा कर दिया जाता है | जिसमें
बताया जाता है कि आज के सौ दो सौ साल बाद कितनी भयानक भयानक घटनाएँ घटित होंगी !
ये सौ दो सौ साल पहले की बातें
वे कर रहे होते हैं जो चार दिन पहले की मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में
सही अंदाजा नहीं लगा पाते हैं |प्रतिवर्ष मानसून आने और जाने की तारीखें
बताने में जिनकी साँस फूलने लगती है | वही लोग "जलवायुपरिवर्तन" जैसे इतने
बड़े बड़े बहम केवल इसलिए डाल रहे होते हैं क्योंकि प्राकृतिक घटनाओं के
विषय में वे पूर्वानुमान नहीं लगा पा रहे हैं जो लगा रहे हैं वे गलत निकलते
जा रहे हैं | इससे जनता के मन में उनके प्रति अविश्वास पैदा होता है |
इसलिए जनता का ध्यान भटकाने के लिए ऐसी डरावनी बातों का सहारा लिया जाता है
जबकि ऐसी बातों का वास्तविक घटनाओं से कोई संबंध ही नहीं सिद्ध होता दिखाई
दे रहा है किंतु समाज उसी में उलझ कर रह जाता है और बात समाप्त हो जाती है
| यही महामारीके समय होते देखा जा रहा है कि हर पूर्वानुमान गलत होने पर
महामारी के वेरियंट बदल जाने की चर्चा की जाने लगती थी |
समाज न तो जलवायु परिवर्तन जानता है और न ही महामारी का स्वरूप परिवर्तन !
इससे समाज को सीधे तौर पर कुछ लेना देना नहीं है | समाज तो मौसम एवं
महामारी से संबंधित घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि जानना चाहता
है | वैज्ञानिकों के द्वारा बताए जाने वाले इस प्रकार के अनुमान पूर्वानुमान आदि जब सही निकलने लगेंगे तभी तो उनके द्वारा कही जाने वाली जलवायुपरिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तनजैसी बातों पर जनता का भरोसा हो सकेगा !
प्रत्येक सौ पचास वर्षों में आते रहने वाली महामारियों से निपटने के लिए
अभी तक ऐसी कोई तैयारी करके रखी ही नहीं जा सकी थी जिससे कोरोना महामारी
से जूझती जनता की कुछ मदद मिलना संभव हो पाता | समाज को जहाँ एक ओर
महामारी तंग कर रही थी वहीं दूसरी ओर तरह तरह की वे डरावनी अफवाहें जीने
नहीं दे रही थीं जो महामारी के प्रकोप के बढ़ने को लेकर फैलाई जा रही थीं |
इनमें वैज्ञानिक अनुसंधान कर्ताओं का भी कम योगदान नहीं रहा है | महामारी
के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों
के नाम पर बहुत कुछ ऐसा बोला जा रहा था जो भ्रम पैदा करने वाला एवं
डरावना होता था | बाद में वो गलत निकल जाया करता था तब तक दूसरा कुछ ऐसा ही
वक्तव्य दे दिया जाता था |
इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर महामारी के विषय में जो जो कुछ
बोला जा रहा था उसमें सच कितने प्रतिशत निकल रहा था तथा जो बातें बोली जा
रहीं थीं उनमें कितने प्रतिशत बातों का वैज्ञानिक आधार था जो सच निकली हैं |
उन वैज्ञानिकों के द्वारा किए गए अनुसंधानों पर भी अब अनुसंधान
किए या करवाए जाने चाहिए ताकि उन बातों में वैज्ञानिकता कितनी थी यह भी तो
पता लगे कि अनुसंधानों की सच्चाई आखिर क्या थी और वे अनुसंधान कितने
विश्वसनीय रहे हैं |
विज्ञान के नाम पर आखिर हो क्या रहा है !
महामारी का सामना क्या इतने कमजोर वैज्ञानिक अनुसंधानों के भरोसे किया जा
रहा था !जिनके द्वारा महामारी, मौसम, मानसून, तापमान, वर्षा वायु
प्रदूषण,भूकंप आदि किसी के विषय में न कारण पता हैं न अनुमान और न ही
पूर्वानुमान !महामारी पर विजय प्राप्त कर लेने के कोरे सपने दिखाए जाते रहे
हैं | महामारी को पराजित करने के लिए हमारे पास आखिर ऐसा था क्या ?
जिस प्रकार की घटनाएँ जब घटित
होते दिखती हैं उस समय उसी प्रकार की घटना घटित होने की भविष्यवाणी कर दी
जाती है | वर्षा बादल आँधी तूफ़ान जैसी जिन घटनाओं को उपग्रहों रडारों की
मदद से कुछ पहले से देखकर कुछ बोल दिया जाता है |उसे भविष्यवाणी मान लिया
जाता है |
इसके अतिरिक्त जिन प्राकृतिक घटनाओं को उपग्रहों रडारों की मदद से देखना संभव नहीं है उनके विषय में भविष्यवाणियाँ न करके भविष्य संबंधी बड़ी आशंकाएँ व्यक्त कर दी जाती हैं |
"हिमालय के आसपास कोई बड़ा भूकंप आ सकता है जिसकी तीव्रता काफी अधिक हो
सकती है" | "महामारी अभी दो साल तक रहेगी !" "वायरस का वेरियंट बदला तो
काफी बड़ा नुक्सान हो सकता है |" जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा ऐसा नुक्सान
हो सकता है | इसीप्रकार की और भी बहुत सारी बातें बोली जाती हैं | जिन्हें सुन कर अपने वैज्ञानिकों पर समाज को बहुत बड़ा भरोसा होता है किंतु जब भूकंप या
महामारियाँ आती हैं तब ऐसे अनुसंधानों से अर्जित अनुभवों की सबसे अधिक
आवश्यकता होती है उस समय जब इनसे कोई मदद नहीं मिल पाती है तब समाज का मनोबल टूट जाता है |
ऐसी परिस्थिति में प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ऐसी आशंकाओं का
वैज्ञानिक आधार क्या होता है ! इनमें सच्चाई कितनी है ! ऐसी बातें बोलने
वाले अनुसंधानों एवं अनुसंधान कर्ताओं की जवाबदेही कितनी होती है |
हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि समाज का उद्देश्य ऐसे अनुसंधानों को
निरर्थक चलाते रहना ही नहीं है जिनसे कोई लाभ हो या न हो फिर भी उन्हें
चलाना समाज की मजबूरी है | वस्तुतः समाज ऐसे अनुसंधानों से कुछ ऐसी अपेक्षा
रखता है जो उसके जीवन से जुड़ी उन विषयों से संबंधित कठिनाइयों को कुछ कम
करे, जीवन को सरल एवं निडर बनाने में सहायक हो !समाज की समस्याओं का कोई
आसान समाधान खोजे | ऐसे अनुसंधान जनता की अपेक्षाओं पर सौ प्रतिशत खरे न उतर पावें ऐसा हो सकता है किंतु दस प्रतिशत भी खरे न उतरें और दशकों का समय यूँ ही निरर्थक बीतता
चला जा रहा हो तो ऐसे अनुसंधानों से लाभ क्या है और इनसे कभी कोई मदद
मिलेगी इस आशा में कितना समय और यूँ ही बिताया जाएगा !यदि इनके बश का कुछ
नहीं है तो लीक पीटने की मजबूरी भी क्या है | इनके विकल्पों की तलाश शुरू की जानी चाहिए |
देखा जाए तो अभी तक किए गए अनुसंधानों के द्वारा महामारी,मौसम,मानसून,तापमान,वर्षा वायु प्रदूषण,भूकंप आदि विषयों
के घटित होने का न निश्चित कारण बताया जा पा रहा हो और न ही पूर्वानुमान
!जो बताए जा रहे हैं उनका घटनाओं के साथ कोई मिलान ही नहीं हो पा रहा है
|ऐसे वक्तव्य इतने बड़े पैमाने पर निरंतर गलत निकलते जा रहे हों तो चिंता
होनी स्वाभाविक ही है | समाज को सोचना पड़ता है कि उनकी बातों पर विश्वास
किया जाए कि न किया जाए !उनके आधार पर बनाए गए नियमों का पालन किया जाए या
न किया जाए !
कई बार ऐसे कल्पित नियमों का पालन न कर पाना जनता की अपनी मज़बूरी होती है
तो भी उन उपायों को मानने के लिए समाज को विवश किया जाता है चूँकि वे
वैज्ञानिकों के द्वारा बताए गए होते हैं जबकि वे ऐसे अनुसंधानों से प्राप्त
अनुभवों पर आधारित होते हैं जिनके आधार पर की गई भविष्यवाणियाँ सही होते
नहीं देखी जाती हैं फिर उनके आधार पर बनाए गए नियम कितने सही होंगे !ऐसी
आशंका होनी स्वाभाविक ही है |
महामारी या प्राकृतिकआपदा जैसे बड़े संकटकाल में मध्यमवर्ग के लोग तो
किसी प्रकार से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लिया करते हैं किंतु मजदूर
वर्ग या मजबूर वर्ग के लिए धन के अभाव में अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करना
अत्यंत कठिन होता है | ऐसी स्थिति में उन्हें ऐसे प्रतिबंधों का सामना
करना पड़े जिनसे उनकी दिनचर्या बुरी तरह बाधित होती हो ! उसके विषय में
उन्हें बाद में पता लगे कि वे प्रतिबंध उन्हीं वैज्ञानिक अनुसंधानों के
आधार पर लगाए गए थे जिनके आधार पर वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए अनुमान
पूर्वानुमान आदि गलत होते जा रहे थे तो यह न अच्छा होगा और न ही अच्छा
लगेगा !
कोविड काल में दिल्ली मुंबई सूरत जैसे महानगरों से मजदूरों का पलायन हो
या बिहार बंगाल आदि की चुनावी रैलियों में उमड़ी भीड़ या दीवाली धनतेरस की
बाजारों में उमड़ी भीड़ या दिल्ली में किसान आंदोलन की भीड़ या हरिद्वार कुंभ
में उमड़ी भीड़ या घनीबस्तियों के छोटे छोटे घरों या कार्यक्षेत्रों में बड़ी
संख्या में लोगों का सामूहिक रहन सहन जहाँ कोविडनियमों का पालन किसी भी रूप
में संभव न रहा हो ,किंतु उस समय वहाँ संक्रमण न बढ़ने से यह तो अनुमान
लगता ही है कि ऐसे प्रतिबंधों की आवश्यकता कितनी थी |
इस पर भी चिंतन होना चाहिए कि प्राकृतिक आपदाएँ कभी कभी घटित होती हैं | इसी प्रकार से महामारियाँ
इतने लंबे समय बाद आती हैं तब से अब तक प्राकृतिक आपदाओं या महामारियों के
विषय में किए गए अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों का लाभ समाज को क्या हुआ ?
महामारी,मौसम,मानसून,तापमान,वर्षा वायु प्रदूषण,भूकंप आदि ऐसे
जिन विषयों में अनुसंधान हमेंशा चला करते हैं | उस वैज्ञानिक अनुसंधान
प्रक्रिया से कुछ तो उपयोगी नए नए अनुभव भी मिलते ही होंगे उनका आगे कहीं
उपयोग भी होता होगा उनसे आगे और अधिक उपयोगी कुछ नए अनुभव भी मिलते होंगे !ऐसे अनुसंधान जनित विशिष्ट अनुभवों की यह श्रंखला इसी प्रकार से निरंतर चलती रहती है |
इसके द्वारा किसी ऐसे निष्कर्ष पर तो पहुँचा ही जा सकता है ! जो लगे कि
अनुसंधानों से प्राप्त हुआ है !इससे समाज को इस इस प्रकार से लाभ होगा जो
अनुसंधानों के बिना संभव न था |ऐसे अनुसंधान
यदि न किए जा रहे होते तो इस इस प्रकार से और अधिक नुक्सान हो सकता था
,तब तो अनुसंधानों की सार्थकता है अन्यथा समय रहते पुनर्बिचार किया जाना
आवश्यक है |
अनुसंधानों के भी कुछ नियम होने चाहिए
वैज्ञानिक अनुसंधान समाज की कठिनाइयाँ कम करने के लिए किए जाते हैं |
लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किए जाते हैं तथा उन्हें सुख
सुविधाएँ पहुँचाने के लिए किए जाते हैं|उनके लिए प्रयोग तो करने ही पड़ते
हैं जिनके अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम भी निकलते हैं किंतु प्रतिकूल परिणाम
सहने की भी एक सीमा अवश्य होनी चाहिए | जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो
अनुसंधान किए जा रहे हैं उन अनुसंधानों में केवल समय और पैसे की बर्बादी ही
न हो उनसे कुछ निकले भी यह हमेंशा ध्यान रखा जाना चाहिए !
महामारी पहली बार तो आई नहीं ये तो हर सौ पचास वर्षों बाद आया ही करती
हैं उनके विषय में अनुसंधान न होते हों तब तो बात और है किंतु यदि
अनुसंधान लगातार होते ही रहते हैं जिनके संचालन पर भारी भरकम धनराशि भी खर्च हुआ
करती है फिर उनसे कुछ ऐसे अनुभव न मिलें जो अगली महामारी से समाज को
सुरक्षित बचाए रखने में मददगार हों तो ऐसे कार्यों की पद्धति पर
पुनर्बिचार किए जाने की आवश्यकता होती ही है |
ये सबसे बड़ा प्रश्न है कि
महामारियों के विषय में अभी तक किए गए अनुसंधानों से ऐसा क्या मिला जिससे
वर्तमान महामारी से जूझती जनता को मदद पहुँचाकर उसका कुछ कष्ट कम किया जा
सका हो | उसका मूल्यांकन इस प्रकार से भी किया जाना चाहिए कि यदि अभी तक इस
प्रकार के अनुसंधान न किए गए होते तो महामारी का सामना करना कितना और कठिन हो
सकता था | उससे क्या क्या नुक्सान और हो सकते थे इन अनुसंधानों के कारण
उनसे बचाव हो सका है |
हमें याद रखना चाहिए कि समाज के द्वारा सरकारों को टैक्स रूप में दी जाने
वाली धनराशि जनता का परिश्रमपूर्वक अर्जित किया हुआ धन होता है |जनता अपने जीवन के आवश्यक
कार्यों को संचालित करने में इतनी स्वतंत्रता से धन का व्यय नहीं कर पाती है | अपने खून पसीने की
कमाई से प्राप्त उस धनराशि को जनता अपनी जरूरतों के लिए बहुत सोच समझकर कंजूसी पूर्वक खर्च किया करती है| कोई सामान खरीदती है तो चार जगह देख सुन कर जाँच परख कर मोलतोल
करके ख़रीदती है ,क्योंकि उसकी वह अपनी खून पसीने की कमाई होती है इसलिए उसका
उससे लगाव होता है | उसका जहाँ धन लगता हैं वहाँ मन भी हमेंशा लगा रहता है
कि उसने जो धन जिस काम के लिए खर्च किया है वह काम हुआ या नहीं और हुआ तो
कितना और नहीं हुआ तो क्यों ?जिस उद्देश्य से धन लगाया जाता है धन लगने के
बाद भी काम न होने पर उसे महीनों पछतावा रहता है कि हमारी लापरवाही या गलत
निर्णय के कारण हमारा धन व्यर्थ में चला गया !हमसे निर्णय गलत हुआ या हमने
गलत आदमी पर विश्वास किया आदि आदि !इस प्रकार से वह जनता महीनों तक अपने
को कोसती रहती है |
जनता की वही खून पसीने की कमाई जब सरकारी योजनाओं पर खर्च होती है तब उस
धन के प्रति उस प्रकार की सतर्कता एवं आत्मीयता कम देखी जाती है इसीलिए उस
प्रकार के परिणाम भी नहीं निकलते किंतु उस प्रयत्न में असफलता के लिए जब उस
प्रकार का पछतावा नहीं होता है तो वेदना होनी स्वाभाविक ही है |
सरकारी
कार्यों में बड़ी बड़ी जिम्मेदारी देकर लोग बड़े बड़े पदों पर बैठाए जाते हैं
उन दायित्वों का सफलता पूर्वक निर्वाहन करना उनका दायित्व होता है किंतु
क्या कारण है कि उनके द्वारा किए कार्यों के परिणाम उतने अच्छे नहीं निकलते
जितनी कि उनसे अपेक्षा की जाती है |जिसका किसी को पछतावा भी नहीं होता है |
सरकारों की अन्य योजनाओं की तरह ही मौसम या महामारी संबंधी वैज्ञानिक
अनुसंधानों के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है | जिसे देखकर लगता है
कि ऐसा विज्ञान जरूरी क्यों है जिसमें पैसा पूरा खर्च हो किंतु आवश्यकता पड़ने पर काम न आवे !
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